1) तुम्हारे आगे कुदरत का हाल।
क्षितिज तक खिंचे हुए - समंदर को देखते,
शफ़क़ की परछाई पर - अपनी निगाहें फेंकते,
मैं सोचता हूँ उस ख़ुदा ने जो रचा, प्यारा रचा।
बे-पनाह, बे-हद, अथाह, ये समा सारा रचा।
लौटकर अपनी नज़र किनारे पर मैं लाया जब,
देखा मैंने तुम खड़ी हो मुस्कुराती साहिल पर।
तुम्हारे पैरों तक आती लहरें, लौटती हैं वापस जो,
कोसती हैं अपने आने-जाने की इस आदत को।
तुम्हारी ज़ुल्फें, हवा से धुलके चमक रही हैं और फ़ज़ा,
फ़ज़ा तुम्हारी गर्म साँसों के घने साये में है।
तुम्हारे रुख़ से हो रही है रौशनी की इब्तिदा,
लग रहा है आसमां का शम्स तुम्हारा अक्स है।
तुम हो और तुम्हारे आगे कुदरत का ये हाल है -
शिकस्त ही शिकस्त है, ज़वाल ही ज़वाल है।
पूछते हो कैसे आख़िर ? वाजिब ये सवाल है,
दरअसल सारी कायनात ख़ुदा का एक ख़याल है,
और इस ख़याल में तुम्हारा भी जमाल है -
कि तुम भी उस रंग-साज़ के हाथों बनी तस्वीर हो,
तुम ईलाही के मक़सद की - ज़िंदा एक तफ़्सीर हो।
परिवार की ज़मीन पर,
गर बो दो "ग़रीबी"
तो उगती है "भूख" की
ज़र्द-आलूद फ़सल।
बो दो फ़िर "भूख" को
मरी हुई ज़मीन पर,
उग पड़ेंगे "ला-इलाज
बीमारी" के शजर।
इस शजर को पीस कर,
नीच कर, निचोड़ कर,
डाल दो धरा में तो
उग आएगी "मौत"।
बड़ी जाड़ी होती है
"मौत" की फ़सल।
असल में फ़सल नहीं,
वह होती है जंगली घाँस।
ऊग आए तो नहीं थमती है
ख़ुद-ब-ख़ुद।
अनवरत बढ़ती है
बिना खाद, पानी के।
मौत की फ़सल जो है,
"जीवन" पर पलती है।
इसे काटने को लगती है,
एक खूँ-सनी दरांती।
इस तरह से साफ़
मौत की फ़सल हो जाती है,
और फूट पड़ते हैं ज़मीं में,
"जुर्म" के अंकुर।
लीडरान से,
सभी सियासतदान से।
एक है अपील मेरी,
एक इल्तिजा है।
फाड़ दो अपने सभी
घोषणा-पत्र पहले
और फ़िर पाओ निजात
अपनी वादा करने की आदत से।
कुछ रोज़ रहो आराम से,
हमेशा की तरह ही
और फिर जुट जाओ
एक ज़रूरी काम में
काम, जिससे सुलझ जाएंगे
मुल्क के सब मसले
काम, जिससे थम जाएंगे
सारे काले सिलसिले।
जाओ जाकर ढूंढ लाओ,
वो किताबें जो अब तक सत्य हैं
उन कवियों को तलाशो
जो हैं अब तक प्रासंगिक
और फिर ताकत लगा दो
अपनी पहुंच की, कद की भी
चाहो अगर तो साथ में
ले लो प्रशासन, पुलिस भी।
और जाकर के बना दो -
सारी प्रासंगिक कविताओं को,
अप्रासंगिक।
पेड़ों के कटने पर लिखी गई हैं,
अनगिनत छोटी-बड़ी
कविताएं।
हर छोटी-बड़ी कविता में,
है कटा हुआ एक पेड़।
बहुत कम कविताएं हैं,
जिनमें एक पूरा पेड़ है।
कटा हुआ नहीं,
ऊगा हुआ आसमान तक।
अनगिनत कविताओं की
हो जाएगी मृत्यु
उन जंगलों की तरह
जिनके पेड़ कट चुके हैं।
बच जाएंगी वह "बहुत कम" कविताएं
जिनमें है पेड़ों की सब्ज़ खुशबू और
गौरैया के लघु कण्ठ की
मधुर आवाज़ें।
बच जाएंगी वह "बहुत कम" कविताएं
जिनमें है एक पूरे जीवन की साँस
और पानी एक निर्मल, अविरल
नदी का।
बच जाएंगी "बहुत कम" कविताएं मगर
आह! सब पेड़ मर जाएंगे,
आह! सब दश्त मर जाएंगे,
उन्हें "कविता-जाने!" कौन बचाएगा।
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