Tuesday 16 March 2021

कुछ बिखरी कविताएँ।


अगर हमारी सम्वेदनाएं जीवित हैं। और अगर हम ईमानदारी से बातचीत कर सकते हैं, तो हम सब कविता कर सकते हैं। हम सब सारी उम्र कवि नहीं हो सकते। पर जीवन के मार्मिक, हार्दिक और दार्शनिक क्षणों में उन कुछ क्षणों के लिए ही सही - कविता रच सकते हैं।

कविता हर ग़म का इलाज तो नहीं है, पर ग़म के खेल में कुछ देर के लिए "ड्रिंक्स ब्रेक" कविताओं के ज़रिए लिया जा सकता है। ग़म सबका किस्सा है, और इसलिए कविता सब लिख सकते हैं - अच्छी या बुरी (ये ख़ुद तय किये बिना)

अपनी सैकड़ों अ-कविता की रद्दी में, हम सब के पास अपनी एक अमूल्य कविता है। - जो तमाम ज़िंदगी शायद! कागज़ पर नहीं आएगी। बावजूद इसके उस एक कविता को जीवंत करने ख़ातिर हम सब ता-उम्र कविताएँ गढ़ सकते हैं। और हर "कविता क्यों ज़रूरी है?" के सवाल के जवाब में सुना सकते हैं - "एक कविता।"


1) तुम्हारे आगे कुदरत का हाल

क्षितिज तक खिंचे हुए - समंदर को देखते,
शफ़क़ की परछाई पर - अपनी निगाहें फेंकते,
मैं सोचता हूँ उस ख़ुदा ने जो रचा, प्यारा रचा। 
बे-पनाह, बे-हद, अथाह, ये समा सारा रचा।

लौटकर अपनी नज़र किनारे पर मैं लाया जब,
देखा मैंने तुम खड़ी हो मुस्कुराती साहिल पर।
तुम्हारे पैरों तक आती लहरें, लौटती हैं वापस जो,
कोसती हैं अपने आने-जाने की इस आदत को।

तुम्हारी ज़ुल्फें, हवा से धुलके चमक रही हैं और फ़ज़ा,
फ़ज़ा तुम्हारी गर्म साँसों के घने साये में है।
तुम्हारे रुख़ से हो रही है रौशनी की इब्तिदा,
लग रहा है आसमां का शम्स तुम्हारा अक्स है।

तुम हो और तुम्हारे आगे कुदरत का ये हाल है - 
शिकस्त ही शिकस्त है, ज़वाल ही ज़वाल है।
पूछते हो कैसे आख़िर ? वाजिब ये सवाल है,
दरअसल सारी कायनात ख़ुदा का एक ख़याल है,
और इस ख़याल में तुम्हारा भी जमाल है -

कि तुम भी उस रंग-साज़ के हाथों बनी तस्वीर हो,
तुम ईलाही के मक़सद की - ज़िंदा एक तफ़्सीर हो।

2) तुम मुझ पर किसी रोज़ ऊग आओगी

पुरातत्व विभाग को 
आज से बहुत पहले
साक्ष्य मिले थे -

साक्ष्य इस बात के -
कि अगर किसी शजर को 
बार-बार तने से काट दिया जाए
और उसे पूरा उगने ना दिया जाए

उगने से रोक कर
फिर पेड़-रहित ज़मीन पर 
एक पत्थर का सिल्ला 
बिछा दिया जाए

तो कुछ सालों में वही पेड़ पूरे,
पत्थर के सिल्ले पर 
ऊग आता है।

देखी जा सकती है 
आकृति उस की
सिल्ले पर कास/घास सी बिछी हुई,
उसके अस्तित्व पर खिंची हुई।

तुम मेरे भीतर,
दिल के बहुत अंदर 
बार-बार, कई बार, 
भुलाई गई हो।

यादें तुम्हारी, तसव्वुर तुम्हारा,
मिटाया, दबाया 
गया है कई दफ़ा।

तुम! मुझे लगता है - 
शजर की तरह ही
मुझ पर किसी रोज़,
ऊग आओगी।

और खींच दोगी ख़ुद को,
मेरे अस्तित्व पर।।


3) और औरत क्या करे?

घाट किनारे चाँद तले,
गुर्जे पर से एक औरत -
मछलियों को दाने डालती है
ना-जाने कितनों का पेट पालती है।
और पालती है अनगिनत अपेक्षाओं को,
अपने नदी समान लाचार ह्रदय में।

दानों के साथ फेंकती है वह,
कामनाएं एक पति की, 
पुत्र-पुत्री की, 
एक सास, एक ससुर की, 
और माँ की भी।

फ़िर अंत में सब आटे-दाने
ख़त्म हो जाने के बाद 
वह ख़ुद फ़ेंक देती है 
अपने आप को पानी में
घाट किनारे चाँद तले गुर्जे पर से।

मछलियां निगल लेती हैं 
सब आटे के दाने
छोड़ देती हैं पर कामनाएं।
एक औरत को निगल लेती हैं -
उसके परिवार की कामनाएं।

4) एव्रीथिंग इज़ इन माइंड।

अभी जब मैं दुःखी हूँ,
बाहर कुछ भी सुखद नहीं है।

कभी जब मैं सुखी था,
बाहर कुछ भी दुखद नहीं था।

दुःखी हूँ तो भीतर में,
भीतर की वजह से।
सुखी था तो भीतर था,
भीतर की रज़ा से।

सुख भी निजी है,
दुख भी निजी है,
हैं अंदर ये दोनों,
फ़िर क्या त्रासदी है!

सब आँसूं बाहर हैं,
सब हंसी बाहरी हैं।




परिवार की ज़मीन पर,

गर बो दो "ग़रीबी"

तो उगती है "भूख" की 

ज़र्द-आलूद फ़सल।


बो दो फ़िर "भूख" को 

मरी हुई ज़मीन पर, 

उग पड़ेंगे "ला-इलाज

बीमारी" के शजर।


इस शजर को पीस कर, 

नीच कर, निचोड़ कर,

डाल दो धरा में तो

उग आएगी "मौत"।


बड़ी जाड़ी होती है 

"मौत" की फ़सल।

असल में फ़सल नहीं,

वह होती है जंगली घाँस।


ऊग आए तो नहीं थमती है 

ख़ुद-ब-ख़ुद।

अनवरत बढ़ती है 

बिना खाद, पानी के।


मौत की फ़सल जो है,

"जीवन" पर पलती है।

इसे काटने को लगती है,

एक खूँ-सनी दरांती।


इस तरह से साफ़ 

मौत की फ़सल हो जाती है,

और फूट पड़ते हैं ज़मीं में,

"जुर्म" के अंकुर।






लीडरान से,

सभी सियासतदान से।

एक है अपील मेरी,

एक इल्तिजा है।


फाड़ दो अपने सभी

घोषणा-पत्र पहले

और फ़िर पाओ निजात

अपनी वादा करने की आदत से।


कुछ रोज़ रहो आराम से,

हमेशा की तरह ही

और फिर जुट जाओ

एक ज़रूरी काम में


काम, जिससे सुलझ जाएंगे

मुल्क के सब मसले

काम, जिससे थम जाएंगे

सारे काले सिलसिले।


जाओ जाकर ढूंढ लाओ,

वो किताबें जो अब तक सत्य हैं

उन कवियों को तलाशो

जो हैं अब तक प्रासंगिक


और फिर ताकत लगा दो

अपनी पहुंच की, कद की भी

चाहो अगर तो साथ में 

ले लो प्रशासन, पुलिस भी।

और जाकर के बना दो -


सारी प्रासंगिक कविताओं को,

अप्रासंगिक।







पेड़ों के कटने पर लिखी गई हैं,

अनगिनत छोटी-बड़ी

कविताएं।

हर छोटी-बड़ी कविता में,

है कटा हुआ एक पेड़।


बहुत कम कविताएं हैं,

जिनमें एक पूरा पेड़ है।

कटा हुआ नहीं, 

ऊगा हुआ आसमान तक।


अनगिनत कविताओं की

हो जाएगी मृत्यु

उन जंगलों की तरह

जिनके पेड़ कट चुके हैं।


बच जाएंगी वह "बहुत कम" कविताएं

जिनमें है पेड़ों की सब्ज़ खुशबू और

गौरैया के लघु कण्ठ की

मधुर आवाज़ें।


बच जाएंगी वह "बहुत कम" कविताएं

जिनमें है एक पूरे जीवन की साँस

और पानी एक निर्मल, अविरल

नदी का।


बच जाएंगी "बहुत कम" कविताएं मगर

आह! सब पेड़ मर जाएंगे,

आह! सब दश्त मर जाएंगे,

उन्हें "कविता-जाने!" कौन बचाएगा।


एक उम्र के लिए कवि होने की आशा में -
मैं बस क्षण भर कवि हो पाता हूँ।

दोनों क्षणभंगुर हैं - जीवन और कवि,
बस कविता नहीं।

एक क्षण कवि हो कर, अगले ही क्षण -
अकवि हो जाता हूँ झट से, तुरंत।
कविता की गति, प्रकाश से अधिक है।

कवि वाला क्षण मेरा दर्शन में बीता -
अकवि के क्षण में मैंने लिख दी कविता।

सभी ने पढ़ी अकवि की कविता,
कवि का दर्शन किसी ने नहीं देखा।

Keep Visiting!

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