Monday, 9 December 2019

चिंटू का बर्थडे : फ़िल्म रिव्यु।



मक़बूल, ओमकारा और हैदर जैसी ब-कमाल फिल्में रचने वाले निर्देशक विशाल भारद्वाज ने एक दफा किसी मंच पर गुलज़ार साहब को कोट करते हुए कहा था कि फिल्मों में हमेशा लॉजिक से ऊपर इमोशन को तरजीह दी जानी चाहिए। हालाँकि लॉजिक का अपना महत्व है लेकिन भारतीय समाज में इमोशंस या भाव ज़्यादा ज़रूरी हो जाते हैं। क्योंकि जैसा कि मैंने हमेशा कहा है भारतीय सिनेमा मानवीय भावों का सिनेमा है। चाहे आप मदर इण्डिया देख लें या आनंद, तमाशा देख लें या पिकू। हर फिल्म में मनुष्य के किसी ना किसी भाव की चीर-फाड़ की गई है। हाल ही में एक ऐसी ही फिल्म मुंबई के सिनेमाई पर्दों पर छाई हुई है। चिंटू का बर्थडे

बिहार से ताल्लुक रखने वाले सत्यान्शु-देवांशु सिंह की जोड़ी द्वारा निर्देशित और ए.अई.बी. के गुरुचरण सिंह खम्बा द्वारा निर्मित यह फिल्म वैसे तो औपचारिक तौर पर 2018 में घोषित कर दी गई थी लेकिन लगभग एक साल के बाद अब लोगों के सामने आई है। और आते ही जनता के दिल में उतरने का काम शुरू कर चुकी है।

हमने होलोकास्ट पर फिल्में देखी हैं। कोल्ड-वॉर पर रचा गया सिनेमा देखा है। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान युद्ध पर, संघर्षों पर, आतंकवादी हमलों पर बनी फिल्में देखी हैं। कश्मीर घाटी के हालात पर और सर्जिकल स्ट्राइक्स पर बनी फिल्में भी देखी हैं। लेकिन अमेरिका और ईराक के मध्य हुए भीषण और जानलेवा युद्ध की, इराकियों के दुःख की, ईराक की सरज़मी पर हुई मानव मूल्यों की हत्या की कहानी हम में से बहुत कम लोगों ने सुनी या देखी है।

2003 में सद्दाम हुसैन की सरकार को नेस्तनाबूत करने के इरादे से अमेरिका ने अपनी सेना को ईराक भेजा और अपने लक्ष्य को हासिल करते-करते 2009 तक 6 लाख इराकियों की मौत का कारण बना। गौरतलब है कि वर्ष 2011 में बराक ओबामा ने अमेरिकी सेना को ईराक़ से पूर्णतः वापस बुला लिया और इस संघर्ष को विराम दिया।

फ़िल्म "चिंटू का बर्थडे" की कहानी इसी त्रासदी अर्थात 2004 के ईराक़ युद्ध के इर्द-गिर्द रची गई है। बिहार का एक व्यापारी (विनय पाठक) ज़्यादा पैसा कमाने के लिए अपने मालिक के झांसे में आकर ईराक़ आ जाता है। और कुछ दिनों में अपने परिवार को भी वहीं बुला लेता है। एक वक्त के बाद उसे खुद के साथ हुए धोके का पता चल जाता है और वह इस उम्मीद में जीने लगता है कि एक दिन वह अपने देश भारत ज़रूर लौटेगा। इस ही परिवार का सबसे छोटा सदस्य चिंटू कहानी का मुख्य पात्र (सेन्ट्रल कैरेक्टर) है। युद्ध की वजह से वह पिछले दो सालों से अपना जन्मदिन नहीं मना पा रहा और इसलिए दुखी है। उसकी माँ, पिता, बहन और नानी इस ही जद्दोजहद में लगे हैं कि किसी तरह से चिंटू का बर्थडे मनाया जाए। बर्थडे केक खरीदने की कोशिशों से लेकर केक बनाने की उहापोह तक सबकुछ एक ही घर में फिल्माया गया है। एनिमेशन और साउंड इफेक्ट्स का इस्तेमाल इस तरह से किया गया है कि दर्शक को युद्ध की दुनिया में होने का एहसास ब-क़ायदा होता है।

चिंटू की मासूमियत और उसके बचपने भरे सवाल दिल पर चोट करते हैं और फ़िल्म की खूबसूरती को सिद्ध करने का काम करते हैं। किसी बच्चे को कहानी का मुख्य किरदार बनाकर जब उसके नज़रिये से संसार की जटिल समस्याओं को दिखाया जाता है तो दर्शक ना केवल उन्हें गौर से देखते हैं बल्कि उन्हें समझने और सुलझाने की कोशिश भी करते हैं। मिसाल के तौर पर फिल्म तारे ज़मीन पर के ईशान को देख लीजिए या राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फ़िल्म हामिद के हामिद को। स्लमडॉग मिलिनीयर के जमाल मालिक को देख लीजिये या सुपर डीलक्स के रासु कुट्टी को। इन मार्मिक और विचार-उत्तेजक फिल्मों के नायक सही मायनों में यह बाल-किरदार ही थे।

चिंटू का बर्थडे ना मन पाने की परेशानी तले निर्देशकों ने प्रेम और करुणा की ताकत, मज़हब से ऊपर मुहब्बत को रखने की फितरत और कभी हौसला ना हारने की सीख जैसी कई ज़रूरी बातें दर्शकों के सामने रखी हैं। एक दृश्य में विनय पाठक का किरदार एक बच्चे को बचाने के लिए ख़ुद की परवाह नहीं करता, अपने मित्र को बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल कर उसकी मदद करता है। अमेरिकी सैनिक जो उसके घर में उसको और उसके अपने परिवार को नुकसान पहुंचाने आए थे, की मरहम पट्टी करने से भी वह नहीं चूकता। याद आता है ख़ुमार बाराबंकवी का शेर कि - ना हारा है इश्क़ और ना दुनिया थकी है, दिया जल रहा है, हवा चल रही है।

विनय पाठक के अलावा, तिलोत्मा शोम और सीमा पाहवा का काम काबिल ए गौर है। तिलोत्मा जिस तरह से अपने किरदार में ढलती हैं वैसे हर कोई नहीं ढ़ल सकता। फ़िल्म कड़वी हवा में उनके द्वारा निभाया गया किरदार उनकी अदाकारी की परिपक्वता का सुबूत माना जा सकता है। वेदांत छिब्बर अर्थात चिंटू ने सहज अभिनय किया है। उनके अभिनय को बहुत हद्द तक नैसर्गिक(नेचुरल) माना जा सकता है। फ़िल्म के बहुत से हिस्से कई मायनों में पसन्द करने योग्य हैं। खासकर के फ़िल्म का मार्मिक अंत। 

पूरी फ़िल्म में जिस चिंटू को घर लौटने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आती थी, जिसे लगता था कि वह अपना बर्थडे कभी अपने घर में, अपने देश में, अपने दादा-दादी के साथ नहीं मना पाएगा, फ़िल्म के आखिर में वही चिंटू भीगी आंखों से अपनी बहन को यह कहकर दिलासा देता है कि - देखना एक दिन हम घर ज़रूर लौटेंगे और तुम्हारा बर्थडे वहीं मनाएंगे। और यह कहते हुए उसकी आंखों में आँसू आ जाते हैं। घुप्प अंधेरे में निर्देशक चिंटू के आंसुओं को एक क्लोज़ अप शॉट में कैद कर दर्शकों के सामने रखते हैं। घर के बाहर हो रहे धमाके थम जाते हैं और चिंटू की आंखों के आंसुओं का दुःखद संगीत कानों में बजने लगता है। पर्दा काला होता है और फ़िल्म समाप्त हो जाती है।


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