ख़्वाइश करती है ठहराव की।
होती है आकर्षित स्थिरता की ओर,
ढूँढती है थमने की एक जगह।
जैसे बारिश की बूंदों को दरकार ज़मीं है।
जैसे सब नदियां सागर तलाश कर रही हैं।
जैसे भिनभिनाता भँवरा फूल खोजता है,
तितर-बितर छंद कोई लय ढूँढता है।
जैसे आँगन में फैली पत्तियां तकती हैं,
झाडू से बुहारे जाने की राह।
दौड़ती मछलियों को होती है एक,
मीठी सी लंबी नींद की चाह।
जैसे मिमयाती भेड़ों के बिखरे समूह को,
चाहिए गड़रिया, गड़रिये के स्वर।
जैसे पशुओं के प्यासे, थके हुए झुंड को,
चाहिए नदी कोई, कोई नहर।
जैसे गुस्से से बिदके हुए बच्चे को,
ज़रूरी है प्यारा सा एक खिलौना।
जैसे मस्ती में डूबे, चंचल बालक को,
चाहिए अपनी माँ की थपकियाँ।
जैसे सुबह का उजाला चाहती है,
काली, अँधेरी और बे-दार शब।
जैसे अशांत, अस्थिर किसी मन को,
चाहिए कोई बाग़, कोई तट।
जैसे फ़िज़ा में भटकती सबा कोई,
टहलने को ढूंढे है सरसों का खेत।
जैसे किसी घोंसले में भूखे चूज़े,
तकते हैं भोजन की, चिड़िया की राह।
जैसे मंझधारे में फंसे किसी तैराक को,
किनारे तक जाने की राह चाहिए।
ख़ुद में "असल ख़ुद" को खोजने कि ख़ातिर,
हर वेद को एक तारा चाहिए।
वैसे ही मुझको, मुझ विचलित, वाचाल को,
तुम्हारी आँखों में क़याम चाहिए।
मेरे दिल के, ज़हन के बिखराव को,
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