Tuesday 19 November 2019

फ़िक्रमंदों के लिए।



सुगबुगाहट है हवा में, सरगोशियाँ हैं और
बुदबुदाती कई सदाएं कह रही हैं कि –
कि बुलंद आवाज़ों को अब डरना होगा,
निज़ाम जो हो, जैसा हो, सबको पढ़ना होगा।

अब नहीं डरेंगी तो कब डरेंगी वे?
"मरे हुए" को थोड़ी होगा खौफ़ का एहसास।
दब जाएँ अभी, तुरंत, ख़ुद-ब-ख़ुद है वक़्त
दबाई गईं अगर तो दम भी घुट सकता है।

ऊँगली उठाने वाले की ऊँगली ना तोड़ी जाएगी,
मरोड़ दिए जाएंगे दोनों हाथ उसके।
फिर उठा नहीं सकेगा वो ऊँगली दौबारा
और ना उठेगा फिर कोई विचार, कोई प्रश्न।

हाँ जुबां पर करम होगा, काटी नहीं जाएगी
वश में कर लेंगे वे, जो चाहे बुलवाएंगे।
आज़ाद ख्यालों को होगी उम्र-भर की कैद,
लफ्ज़-ओ-मानी आपस में उलझा दिए जाएंगे।

फ़िक्र जो करते हैं उनकी फ़िक्र क्या है? ये -
कि आवाज़ क्यों उठाते हैं कुछ लोग? क्यूँ वाचाल हैं?
अपनी जान का ख्याल नहीं है, ना सही
क्यों फ़िज़ूल में करते माशरे को लाल हैं?

बेहतर है डर के रहें, दब के रहें, कुछ ना कहें,
तालाब के जैसे हमेशा, सब सहें, हद्द में रहें।
पड़ना क्यों है झंझटों में? फंसना क्यों झमेले में?
देखो सबको, बांधो पट्टी, शामिल हो जाओ रेले में।

तुमको क्यों बनना है बोलो, रौशनी का नामा-बर
स्वार्थ देखो, अपना देखो, “मैं” को देखो छोड़ो सब।
रौशनी भी अब तो गालिबन है उनके मोह में,
ज़मीर अपना खो चुकी है, भीतर अपने, टोह में।

फ़िक्र करने वाले फ़िक्र करते नहीं इस बात की -
कि घड़ी है पास लम्बी और काली रात की।
चमगादडें लटकी मिलेंगी उल्लुओं के राज में
लोमड़ियाँ बांग देंगी, खाइयों के पास में।

मुझको मेरे कातिलों से, मुखालिफ़ से नहीं गिले
मुझको हैं शिकवे मेरे हाफिज़ से, फ़िक्रमंदों से
के ध्यान जिनका आज पर है, कल की है खबर नहीं,
फ़िक्र करने वालों ये खुदगर्ज़ी है, फ़िक्र नहीं
फ़िक्र करने वालों ये खुदगर्ज़ी है, फ़िक्र नहीं।।

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