यह कहानी सत्य है। मैंने सत्य के साथ सिर्फ़ कुछ प्रयोग किये हैं।
मैं आपा-धापी में बस में चढ़ा और घुसते ही अपनी सीट तलाशने लगा, खिड़की के पास वाली सीट। यह बस का दूसरा स्टॉप था, वह पूरी तरह से खाली थी। लेकिन दूसरा स्टॉप कतई खाली नहीं था। मेरे साथ लगभग तीन और दर्जन लोग बस में घुसे गए। सबने पलक झपकते ही अपनी-अपनी सीटें पकड़ लीं और किसी प्रतियोगिता जीते हुए व्यक्ति की तरह सुकून से अपनी जगह पर बैठ गए। उनके चमकते हुए माथों पर सीट मिलने की ख़ुशी चस्पा थी और उस ख़ुशी को साफ-साफ देखा जा सकता था।
मैं उन लोगों में अपनी कहानी के पात्र तलाशने लगा। नए नहीं, पुराने पात्र। पात्र जो अभी बहुत अधूरे हैं और जिन्हें पूरा कर देना मेरे लिए एक पूरा जीवन जी लेने जैसा होगा। कुछ एक पल के बाद अचानक ही मुझे सीट का ख्याल आया और इस ख्याल ने किरदारों के चयन में खलल डाल दिया।
मैं दाहिनी तरफ की सबसे आगे से पांचवी सीट पर बैठने के लिए जैसे ही आगे बढ़ा, मैंने देखा कि उस सीट पर एक सफेद रुमाल पड़ा हुआ है। "जल्दी में कोई भूल गया होगा।" मैंने मन में कहा और उसे उठाते हुए यही वाक्य दोहराया। ज्यों ही मैंने रुमाल उठाया एक पहाड़ नुमा शख्स मेरे पीछे, ठीक पीछे आकर खड़ा हो गया। "रुमाल लाओ" उसने कहा। मैंने तुरन्त रुमाल उसे दे दिया। "मैं यही सोच रहा था कि कोई भूल गया होगा। चलिए अच्छा हुआ आप वापस लेने आ गए" मैं मुस्कुराया। "हम्म! साइड हट अब।" उसने अपनी नाक सिकोड़ी। "लेकिन यहां मैं बैठूंगा, साइड क्यों दूं।" मैंने आंखों से कहा। "रुमाल मेरा है और वो वहां उस सीट पर रखा था। इसका क्या मतलब हुआ?" उसने धीमे स्वर में कहा। "मतलब आप रुमाल यहां भूल गए थे और क्या" मैं जान-बूझकर भोला बन रहा था। इस काम में मेरी पीएचडी है। "अबे! सीट मेरी है। साइड हट चल।" अब उसके स्वर और व्यंजन दोनो तेज़ हो गए थे। मैं पीछे हट गया और वह शख्स रुमाल वाली सीट पर जाकर बैठ गया।
मैंने अपनी सीट छोड़ दी। "छोड़ देने में ही भलाई है। कौन इस मूर्ख से बहस करे" मैंने बहुत धीमी आवाज़ में कहा। "मुश्टण्डा है, कहीं पीट ही ना दे।" मेरा मन कह रहा था। मैंने सीट ज़रूर छोड़ दी थी लेकिन उसे हासिल करने की इच्छा का त्याग मैं नहीं कर सका था। "चीज़ों को त्यागना, बिना इच्छाओं के त्याग के, व्यर्थ है।" एक हवा के झौंके के साथ बापू ज़हन में कौंध उठे।
बस कुछ सात-आठ मिनिट पहले ही चल चुकी थी। मैं अब उन लोगों की लाइन में शामिल हो गया था जो कि बस की दोनों तरफ, उसके ऊपरी हिस्से में बने हुए डंडे को पकड़कर खड़े रहते हैं। खिड़की की ओर मुंह करके खड़े इन लोगों की नज़र कभी बाहर के नज़ारों पर नहीं होती। बल्कि वे अपने सामने वाली सीट को टकटकी लगाए देखते रहते हैं। कि कब वह खाली हो और ये उस पर जाकर बैठ सकें। बैठे हुए लोग सत्ताधारी और खड़े हुए विपक्ष। सुकून में सत्ता, और दर्द में विपक्ष।
बस अपनी गति, जिसमें गति ना के बराबर थी से चल रही थी। मैं लगातार उस मोटी बोहों वाले, जाड़े आदमी को देख रहा था। मैं उसे तमाम तरह की गालियां बक चुका था और अब मन उन गालियों के मैल से भारी हो गया था। मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था और चिड़ भी। मैं उसे उसके परिवार समेत कोस रहा था। लेकिन फिर भी अच्छा पात्र मैं ही था। यह मेरी कहानी है और इसका नायक मैं और सिर्फ मैं हूँ।
गालियों से मन भारी हो रहा था क्योंकि वे मन से निकलकर वहीँ वापस लौट रहीं थीं। और इसलिए अब मैं व्यंग्य कसने के मौके तलाश कर रहा था। पसीने की एक लकीर उस शख्स की पेशानी पर उभर आई थी। वह खिड़की से बाहर देखने में इतना मसरूफ था कि उसे पसीना पोंछने की भी सुध नहीं थी। अचानक उस लकीर में बहती हुई पसीने की पतली सी आबजू से एक बूंद पानी उसकी मोटी बोहों में जाकर गिरा और वहां से रिसकर सीधे उसकी आँखों में। उसकी आंखें यकदम बन्द हो गईं और फिर यथार्थ में आकर खुलीं। उसने झट से अपना रुमाल निकाला और पहले अपनी आंखों फिर अपने माथे को और अंत में अपने गंजे सर को पोंछने लगा। एकाएक एक दचके की वजह से उस शख्स के हाथ से उसका रुमाल छूट गया।
"अब तो पूरी बस आपकी हो गई सर।" मैंने नीचे पड़े रुमाल को देखते हुए कहा।
"ज़्यादा मत बोल बे।" उसकी नज़रों ने रुमाल उठाते हुए कहा। वह मुझे घूर रहा था। और मैं मन ही मन उछल रहा था। इसलिए नहीं क्योंकि मैंने उसे गुस्सा कर दिया था बल्कि इसलिए क्योंकि मैंने व्यंग्य करने के मौके पर ज़ोरदार तंज़ का चौका मार दिया था।
दस मिनिट के वक्फे के बाद मेरा स्टॉप आ गया। मैंने दरवाज़े की तरफ अपने कदम बढ़ाना शुरू करे ही थे कि उस शख़्स ने भी अपनी सीट छोड़ दी। वह मेरे पीछे आने लगा। मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। "जल्दी कर भाई, जल्दी कर। कछुए सा रेंग रहा है।" मोटी बोह वाले, तोंदू शख़्स की ज़ुबान से फिर शब्द फूट पड़े। "चल ही तो रहा हूँ सर।" मैं लगभग दरवाज़े तक पहुंच गया। "ज़्यादा मत बोल बे।" उसने फिर अपनी आंखें मुझपर गड़ा दीं। वह लगातार मुझपर गुस्सा और आक्रोश फेंक रहा था। और मैं लगातार उसके गुस्से को हंसी से झेल रहा था।
मैं नीचे उतरा और मेरे उतरते ही बस चल पढ़ी। एक झटके से मेरे पीछे आ रहा वह गंजा शख़्स नीचे गिर पड़ा और उसका रुमाल वहीं उसके आगे पसर गया। "क्या बात है! पहले एक सीट, फिर बस और अब पूरी की पूरी सड़क। एक एक करके सब कुछ अपने अधिकार में ले रहे हैं आप सर जी।" मैंने उनकी ओर अपना हाथ बढ़ाया। "और हथियार के नाम पर क्या है आपके पास? एक सफेद रुमाल। बस! वाह, नहीं मतलब वाक़ई वाह!"
मैं "एक गाल पर तमाचा पड़े तो अपना दूसरा गाल आगे कर दो।" के सिद्धांत पर चल रहा था।
वह शख़्स मेरा हाथ पकड़कर खड़ा हुआ और अपना रुमाल उठाने के लिए झुका। "गांधी जी के नाम का सच्चा इस्तेमाल तो आप ही कर रहे हैं सर। सफेद रुमाल की आड़ में, झाड़ काट रहे हैं। क्यों?" मेरा बड़बोलापन अपने चरम पर था। उसने अपना रुमाल उठाया, एक ही बार में पूरे मुंह पर फेरा और इस बार मुंह से बोला - "ज़्यादा मत बोल बे।" इतना कहकर वह अपने रस्ते चल दिया।
"और कछुआ रेंगता नहीं है सर, चलता है। भले ही धीरे, मगर चलता है।" मैंने बस स्टॉप से ही चिल्लाते हुए कहा। उसने मुझे पलट कर नहीं देखा, सिर्फ़ अजीब तरीके से अपना सर हिलाया। जैसे कह रहा हो - "ज़्यादा मत बोल बे।"
ना हाथ चले, ना हथियार। और एक लड़ाई खत्म भी हो गई, बगैर किसी तरह की हिंसा के।
"नाके तक चलोगे" मैंने एक रिक्शा वाले को आवाज़ लगाई। "बैठो" उसने अपने सर से इशारा किया। "कितने गांधी लगेंगे?" मैंने पूछा और ऑटो के भीतर चला गया।
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केंद्रीय भाव बहुत ही अच्छा हैं।
ReplyDeleteसरलता, स्वाभाव, संदेश 💫
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