Tuesday, 23 July 2019

मेहरून सिक्के।



स्कूल के कॉरिडोर में अपनी क्लास के बाहर खड़ा मैं, मैदान पर बिखरे बच्चों को निहारते हुए अपने हाथों में रखी किताबों की जगह तलाश रहा था। लाइब्रेरी के कौन से सेक्शन में रखी कौन सी रेक से मैं उन्हें उठा लाया था, मुझे रह-रहकर याद आ रहा था।

एकाएक रीसेस खत्म होने की घण्टी बज गई। उसके अनुरणन से मेरा ज़हन वह भी भूल गया जो उसे रह-रह कर याद आ रहा था।

स्कूल के पी. टी. टीचर किसी झाड़ू की मानिंद मैदान में आ धमके और बच्चों को बुहारने लगे। पल भर में वहां कोई नहीं बचा। केवल पी.टी. टीचर मैदान के बगल में बास्केट बॉल कोर्ट से  सटकर खड़े थे। जैसे सफाई कर देने के बाद झाड़ू खड़ी रहती है, घर के किसी कोने में।

मैं किताबों की सही जगह तलाशते हुए लाइब्रेरी की ओर चल पड़ा। कॉरिडोर की मेहरून रेलिंग पर अपना एक हाथ घसीटते हुए चलता "मैं" उसकी आवाज़ से रुक गया।
वह अपनी क्लास के बाहर, अपनी सहेलियों के साथ खड़ी थी। एक सर्किल में, जैसे अधिकांश कहानियों की नायिकाएं खड़ी रहती हैं।

"प्रद्युम्न" उसने कहा।

"मौन" मेरा जवाब था।

मैं उसकी ओर मुड़ा और उसे एकटक निहारने लगा, वह भी ऐसा ही करती रही। हमारी आंखों के बीच आकर्षण का एक ऐसा पुल बन गया जिसे कुछ ही देर में उसकी सहेलियों की हंसी ने तोड़ दिया। और "मौन" में ठहरा हुआ प्रेम "वाचाल" हो गया।

उसके सफ़ेद चेहरे पर लगी उसकी भूरी आँखें "मुझे पहचाना?"  का सवाल पूछ रहीं थीं। और मेरा जवाब अब भी "मौन" था।

स्मृतियों का रेला मेरी आँखों के सामने से गुज़र गया। बहुत सी भूरी आंखों में से उसकी आँखें सॉर्ट हो गईं।

"तुम देखते रहे हो इसे, यहीं स्कूल में। मैदान में, असेंबली में, लाइब्रेरी में, पानी की टँकी के पास, झूलों पर और केमेस्ट्री लैब में भी।" मेरी स्मृतियों ने कहा।

"हाँ! याद आया" मैंने कहा।

"तो बताओ उसे" उन्होंने कहा।

"मगर सवाल उसकी आँखों ने पूछा है, तो जवाब मेरी आंखों को ही देना होगा" मैंने कहा।

वह मेरे बेहद करीब चली आई, उसकी गर्म साँसों ने स्मृतियों को मिटा दिया। और मेरा जवाब एक और बार "मौन" में सिमट गया।

उसने मेरा हाथ अपने हाथों में लिया और उसे अपनी कमर में लपेट लिया, स्कार्फ़ की तरह। हम बिना कुछ कहे कॉरिडोर में वहां तक चले जहां से नीचे की ओर जाने वाली सीढ़ियां शुरू होती थीं। लौटते में उसने मेरे हाथों में एक कागज़ थमा दिया और मुस्कुराते हुए वापस अपने सर्किल में चली गई।

मैं हाथ में कागज़ लिए अपनी बगले झांकने लगा। "हम लड़कों का कोई सर्किल क्यों नहीं होता" का ख़्याल कुछ क्षण के लिए ज़हन में रह गया।

कागज़ में एक नम्बर था, मोबाइल नम्बर। जिसके आखिरी दो अंक थे। "एक" और "दो"।

आम तौर पर बच्चों से खचाखच भरा रहने वाला कॉरिडोर उस रोज़ बहुत हद्द तक खाली था। वहां सिर्फ़ वह थी, अपने सर्किल में और मैं सर्किल के बाहर किसी पॉइंट की तरह खड़ा था।

मैंने अपने हाथ में रखे कागज़ को अपने पास रखी किताबों में से एक में डाला और उसके सर्किल के बगल से कहता हुआ निकला - "मैं कॉल करूंगा" 

मेरा जवाब किसी टेन्जेन्ट की तरह उसके सर्किल को छूता हुआ निकल गया।

लाइब्रेरी जाने का ख़्याल मैंने वहीं उस सर्किल के बाहर किसी अन्य पॉइंट पर छोड़ दिया और एक स्ट्रेट लाइन में अपनी क्लास की पर चल पड़ा। इंटरनल एनर्जी से लबरेज़ इलेक्ट्रॉन्स-नुमा बच्चों से भरी क्लास में पहुंचते ही सबसे पहले मैंने उस कागज़ को अपने बैग में डाला और क्लास की संयुक्त एनर्जी का एक हिस्सा बनकर बैठ गया।

क्लास की एनर्जी, क्लास में ही छूट गई और इसलिए घर पहुँचकर मैं थकान के मारे सो गया। और जब जागा, तो "बैग में रखे कागज़ में उसका नम्बर है" के विचार के साथ जागा। आनन-फानन में मैंने पूरा बैग तलाश लिया लेकिन कागज़ नहीं मिला। मिले तो सिर्फ़ दो सिक्के, मेहरून रंग में रंगे हुए , "एक" और "दो" के सिक्के।

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