Friday 12 July 2019

चायवाली || हिन्दी कहानी।



अपनी अधिकतर रेल यात्राएं मैंने ट्रेन की अपर बर्थ पर बैठकर की हैं। वे हमेशा से मेरी पहली पसंद रही हैं। रेलवेज़ की भाषा में कहूँ तो “फर्स्ट प्रिफ्रेंस”। किसी भी सफर से पहले ट्रेन में अपना रिजर्वेशन करवाते हुए मैं वो हरसंभव कोशिश करता जिससे कि मुझे अपर बर्थ अलॉट हो। यूँ तो लोगों से बात करना, उनसे घुलना-मिलना मुझे पसंद है लेकिन रेल यात्राओं के दौरान में अपनी इस पसंद को तरजीह नहीं देता। अक्सर मेरी आधी रेल यात्रा ट्रेन के दरवाज़े पर गुज़रती है तो बाकी आधी अपनी अपर बर्थ पर लेटकर गाने सुनते हुए। उस रोज़ भी यही हुआ, कम से कम शुरुआत में तो।

अपने वास्तविक समय से एक घंटा लेट चल रही पंजाब मेल एक्सप्रेस उस रोज़ अपने इतिहास में पहली बार इतनी जल्दी आई थी। आम तौर पर वह तीन से चार घंटे देरी से आती थी। यहाँ स्टेशन पर ट्रेन लगी और वहां मैं उसके एस टू कम्पार्टमेंट में घुस गया। कुछ डेली अप-डाउनर, कुछ पैंट्री वाले और ट्रेन के डब्बों में नंगे घूमते कुछ भिखारियों को पीछे छोड़ते हुए मैं अपनी बर्थ तक पहुंचा। अपनी अपर बर्थ तक। और हर बार की तरह अपने बैग को ऊपर फेंकते हुए खुद भी ऊपर चढ़ गया। बैग और खुद को तरतीब से जमाकर मैंने अपने इयर फोंस लगाए और लगभग दो स्टेशनों के लिए असल दुनिया से दूर हो गया।

इयर फोन्स कान में घुसाते ही मन कल्पना संसार में चला जाता है। कल्पना संसार एक ऐसा सुखद संसार है जहाँ आप और केवल आप ही नायक हो सकते हैं। इस संसार में देशभक्ति के गीत सुनते हुए आप सबसे बड़े देशभक्त बन जाते हैं तो मुहब्बत के गाने सुनते हुए सबसे बड़े आशिक। आप देश भी बचाते, प्रेम भी पाते हैं और तो और आप इस संसार में वो सबकुछ हासिल कर लेते हैं जो कि असल दुनिया में आप ता-उम्र हासिल नहीं कर पाते।

खैर दो स्टेशन बाद मैं वापस वास्तविक दुनिया में आ गया। एक लम्बी कल्पना के बाद हकीक़त को देखना कभी-कभी दुःख देता है और कभी-कभी चेहरे पर एक हलकी सी मुस्कान छोड़ देता है।

मैं उठा और कुछ देर के लिए बर्थ पर बैठ गया। बैठते ही मेरी नज़र ठीक मेरे सामने वाली बर्थ पर बैठी एक जवान और पुर-कशिश लड़की पर जाकर ठहर गई। गुलाबी टी-शर्ट और नीली जींस पहने वह अपने पर्स को अपनी गोदी में दबाए बैठी थी। उसकी उम्र यहीं कोई 20-22 साल रही होगी। काबिल-ए-गौर जमाल से भरपूर उस लड़की का यौवन अपने उरूज़ पर था। वह रह-रहकर अपनी आँखें बंद करती, अपना सर ट्रेन की दीवार से टिकाती और कुछ सोचने लगती। उसका चेहरा ज़र्द लेकिन फिर भी आकर्षक दिखाई पड़ता था। वह बैठे-बैठे सोने की नाकाम कोशिशें कर रही थी।

ट्रेन रुकी हुई थी। मैं नीचे उतरा और एक चाय लेकर ट्रेन के दरवाज़े पर खड़ा हो गया। ना चाहते हुए भी उस लड़की को लेकर कई सवाल मेरे मन के भीतर कौंधने लगे। हालाँकि उनमें से एक का भी जवाब खोजने की ज़हमत मैंने नहीं उठाई। ट्रेन वापस चल पड़ी। मैं कुछ देर बाद अपनी बर्थ पर जाकर दोबारा लेट गया। लेटे हुए मेरी नज़र नीचे की बर्थ पर बैठे कुछ लड़कों या उन्हें आदमी कहना ठीक होगा पर बार-बार रुक रही थी। मैं उन्हें, उनके इशारों, उनके चेहरे के हाव-भावों और उनकी हल्की-हल्की मुस्कुराहटों को देखकर ये समझ चुका था कि उनकी निगाहें उस लड़की पर ही हैं। वे लगातार टकटकी लगाए उसे देखे जा रहे थे। और मैं उन्हें ऐसा करते देख रहा था। मैं करना तो बहुत कुछ चाहता था लेकिन हर आम भारतीय की तरह समाज और उन लोगों की मानसिकता को मन ही मन बुरा भला कहने और गाली देने के अलावा मैंने कुछ नहीं किया।

रात के लगभग दस बज चुके थे। वह लड़की अपने पर्स को सिरहाने लगाकर और अपनी एक पतली सी चुन्नी को ओढ़कर, सोने की कोशिश कर रही थी। यह एकदम स्पष्ट था कि वह अकेली थी। मेरे दिमाग में सवाल उसके अकेले होने का नहीं था। सवाल इस बात का था कि आखिर एक लड़की सिर्फ एक पर्स लिए, बिना किसी साज-ओ-सामान और यात्रा में काम आने वाली मूलभूत चीज़ों के इतना लम्बा सफ़र क्यों तय कर रही है? इस सवाल को अपने पेट में और नीचे बैठे उन आदमियों के लिए उपजे गुस्से को अपनी आँखों में दबाए मैं करवट लेकर सो गया।

ट्रेन चलती रही और मैं सोता रहा। सुबह के कोई चार बजे, ट्रेन के तेज़ हॉर्न और किसी स्टेशन पर हो रहे शोर से मेरी नींद टूट गई। मैंने अपनी आँखें मलिं और फिर उन पर चश्मा चढ़ा लिया। रात को जिस सवाल को मैंने अपने पेट में दबा लिया था, वो पच चुका था और जिस गुस्से को आँखों में लिए सोया था, वो घुल चुका था। वो लड़की जा चुकी थी, नीचे बैठे आदमी जा चुके थे। ट्रेन रुकी हुई थी और खिड़की के बाहर स्टेशन पर एक 12-13 साल की बच्ची, एक हाथ में चाय की केतली और दूसरे में कप लिए आवाज़ लगा रही थी “चाय, चाय, गर्म-गर्म, मसाले वाली, नींद से जगाने वाली, चाय।” मैं बर्थ से नीचे उतरा, उस लड़की से एक चाय ली और चाय पीकर सो गया। अपर बर्थ पर।

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