उस वक़्त मेरी उम्र कोई सोलाह-सत्राह वर्ष रही होगी जब पहली दफा मैंने यूट्यूब पर माणिक वर्मा साहब को सुना। मेरे फुआजी जो की साहित्य और धार्मिक ग्रंथों में बहुत अधिक रुची रखते हैं ने मेरे कविता के शौक को देखते हुए मुझे माणिक वर्मा को सुनने की सलाह दी। उल्लेखनीय है कि उनकी बात करते हुए वे लगातार हँस रहे थे। उनकी सलाह मानकर मैंने भोपाल में माणिक साहब को सुना और उनकी कविता "मांगीलाल और मैंने" मेरे ज़हन में रह गई। कुछ एक आध साल बाद मैं कॉलेज हेतु इंदौर आ गया। पहले साल में ही कॉलेज के युवा उत्सव के दौरान मुझसे आग्रह किया गया कि मैं मंच से कोई कविता सुनाऊं और लोगों का मनोरंजन करूँ। ऐसे में मेरी दुविधा यह थी कि आखिर मैं ऐसा करूँगा कैसे? क्योंकि उस समय तक किसी भी नए युवा कवि की तरह में दर्शन और मानव भावों से जुड़ी कविताएँ लिख रहा था। ऐसी स्थिति में माणिक साहब ने मेरे लिए संकटमोचक का काम किया। मैंने एक बिल्कुल अलग कहानी रची, दो शिक्षकों और उनके उपद्रवी शिष्यों की कहानी। और फिर उस कहानी को माणिक साहब की कविता कहने के तरीके में ढाल दिया। यह ठीक वैसा था जैसा कुछ लोग आज कुमार विश्वास या सुनील जोगी के कविता कहने के तरीके के साथ करते हैं। शब्द उनके होते हैं लेकिन पढ़ने का तरीका या तरन्नुम किसी दूसरे जाने-माने कवि की होती है। इस कविता के ज़रिये मेरा मकसद सिर्फ मनोरंजन है और कुछ भी व्यवसायिक नहीं है।
With Due Respect To Manik Verma Sahab
समझदारों! निकट भविष्य के पत्रकारों!
दिन में डेटिंग रात को चेटिंग
बैकफुट पे पढ़ाई, फ्रंटफुट पे बैटिंग
तुम्हे ऐसी बैटिंग के काबिल किसने बनाया?
नटवरलाल और मैंने।
मक्कारों! कला को घर रखने वाले कलाकारों!
ऑइल पेंट से पुति कच्ची दीवारों!
आगे तारीफ,पीछे शिकायत
ज़ुबाँ पर साथ, दिल में बग़ावत।
तुम्हें बगावत किसने सिखाई?
नटवरलाल और मैंने।
गुलमटों! चीज़ें बहुत चमका लीं
अब खुद भी तो चमको!
काम कमज़ोर, शौक शाही
पूर्व में बैठकर,पश्चिम की वाह-वाही
तुम्हें यह सब करने की आज़ादी किसने दी?
नटवरलाल और मैंने।
उछलते अधपके चनों!
बहुत बनाया लोगों को अब खुद भी कुछ बनो।
सुबह चाय रात को नशा
सब भुलाकर दिनभर बस मस्ती,मौज, मज़ा।
तुम्हारी सारी हरकतों को नज़रअंदाज़ किसने किया?
नटवरलाल और मैंने।
लुच्चों! ज़रूरत से ज़्यादा बड़ चुके, मेरे बच्चों!
बात बात पर केजरी सा धरना
कुछ न आते हुए भी बस कॉपी के पेज भरना।
तुम्हारी बेरंग मार्कशीट किसने चमकाई?
नटवरलाल और मैंने।
शैतानों! हाई पिच पर बजते बेसुरे गानों!
गोरे चेहरे,काम काले
तुम तो बातों के भूत हो
लातों से नहीं मानने वाले।
तुम्हारी काली करतूतों को प्रिंसिपल से किसने छुपाया?
नटवरलाल और मैंने।
सयानों, नेताओं के मुँह से निकले
उलजुलूल बयानों।
मुँह में रसगुल्ला,पीठ में छूरी
हमने भी की अपनी ख्वाइश पूरी
बरसों से जो थी अधूरी
भरी सभा में तुम्हारी इज़्ज़त का, जनाज़ा किसने निकाला?
नटवरलाल और मैंने।
Keep Visiting!
बहुत ही अच्छा प्रयास आगे भी लिखते रहें। अपनी बात किसी की नकल करने के बजाय खुद की शैली विकसित करने का प्रयास करें तो बेहतर होगा।
ReplyDeleteमैं माणिक वर्मा जी का प्रशंशक हूँ।आपका प्रयास सराहनीय है। लेकिन आप अपने अंदर के कवि को लंगड़ा लूला न समझें।जो मसा स्वतन्त्र लेखन में है वह नक़ल में हरगिज़ नहीं। अपनी कवितवशक्ति को जाग्रत कीजिये।
अदित्य सिंह।8112542677