Thursday, 20 September 2018

ना-गवार नज़्में।






ख़ुदा 

सड़क पर महव-ए-तसव्वुर में मैं,

चलता हूँ जब आसमाँ ताकते,

बन जाता है चर्ख

एक सिनेमाई पर्दा

और अब्र सब किरदार यकुम।।


चलती है फ़िल्म

के जिसका लेखक भी मैं,

निर्देशक भी मैं और

दर्शक भी मैं।


बस के जिस पल

लगता है मुझको,

यही फ़िल्म है "ज़िन्दगी"।

एक पत्थर से टकराकर मैं,

यथार्थ में गिर जाता हूँ।

सब तख्य्युल पल भर में,
मिट्टी में मिल जाता है।

"ख़ुदा है" के ख़्याल का,

ख़्याल आता है।।

उलझन।

सलवटों में लिपटी चादर।
बिखरा बिस्तर,
बिखरी किताब।।

कुचड़-मुचड़ के

रखे कुछ कागज़।

फैले कपड़े, फ़ैले ख़्वाब।।



बे-तरतीब से गेसू और ये
बे-तरतीब से सारे ख़्याल।
उथल-पुथल सारा सामान और
उथल-पुथल सा जीस्त का हाल।।



गुथे हुए ईयरफोन्स
और गाँठ लगा एक चार्जर।
मुड़े हुए कुछ नोट जेब के
और सफें दीवार पर।।


गोल-गोल सी बातें तुम्हारी,
और तुम्हारे सर के बाल।
बे-बहर ये नज़्म और ये
उथल-पुथल सा जीस्त का हाल।।

यहाँ जो कुछ भी "उलझा" है।
वो "उलझा" सब कुछ मेरा है।।

खोज।

मेरे "सब कुछ" में

मेरे "कुछ" को खोजना,

कठिन है।

कठिन है, क्योंकि

अनहद है "सबकुछ"

अनहद, अनंत सागर जैसा।

और "कुछ" हैं उसमें
नोका सा,
जो तैर रहा है "सबकुछ" में।

"कुछ" को मैंने छोड़ा होगा,
"सबकुछ" में
बचपन के पास।

अब मैं हूँ जो तैर रहा हूँ
तैर रहा हूँ "सबकुछ" में।
हांप रहा हूं, डर है मुझको,
के कहीं नोका डूब ना जाए।

मेरे "सबकुछ" में
मेरे "कुछ" को खोजना,
कठिन है।


फ़सादी।


तुम फ़सादी हो तुमको,


ना गुज़री गवारा।

मेरी नज़्में,

मेरी बातें,

मेरा फ़साना।।


तो ले आओ तेग
ओ खंजर ओ हथियार।
आओ और रेत दो,
गला मेरा।।

निकाल लेना दिल,
के जिससे महसूस करता हूँ।
काट देना दस्त,
के जिससे सत्य कहता हूं।।

खेंच लेना ज़हन जबीं से
और दोंच देना पत्थर से।

बस के जिस वक़्त लगेगा तुमको,
"तुम जीत गए हो"
तुम हार जाओगे,

वो पत्थर के जिससे,
ज़हन को दोंचा था।
देखना वो रंगीन हो जाएगा।।



नज़्म।


तमाम शब इक नज़्म के,

तख़य्युल में मैं,

सादे कागज़ पर,

सफ कई खींचता रहा....

महव-ए-तसव्वुर
मुझे याद ही नहीं,
के कब आँखें सो गई,
सर तले कागज़ रख कर।

सुबह उठा तब आईने में,
चेहरे में देखा,
नज़्म मेरे गालों पर
खिंची हुई थी।

घर।

बचपन में ट्रेन से जाते हुए,

गाहे बाबा से पूछता था -

"और कितनी दूर है बाबा घर?

अपना दर, अपना शहर?"

मन रखने को बाबा दूरी,
काट-काट बाँट देते थे।
कहते थे अपना घर आएगा,
सात सुरंग, छह नदियों बाद।

मैं करता था इन्तिज़ार शहर का,
सुरंग, नदियां गिन-गिनकर।
सुकून था,
मालूम था मुझको,
बहुत जल्द अब घर आएगा।।

आजकल यह नहीं होता है,
बाबा नहीं बताते कुछ।

अब चंद सुरंग, कुछ नदियाँ आगे,
मेरा "घर" नहीं आता।।


ज़िम्मेदार।

कहाँ रहता परिंदा

अगर उसको,

नहीं आता बनाना,
नशेमन अपना?

लेखक।

"लेखक: हूँ या नहीं" के ख्याल,

के साथ सोकर,
"लेखक हूँ" के ख्वाब देखता हूँ।

ख्वाब टूट जाता है,
नींद टूटते ही,
नींद की ही तरह...


जागता हूँ रोज़ पूरी,
"लेखक हो जाऊं" के ख्याल के साथ। 


"लेखक : हूँ या नहीं" के विचार के साथ
सो जाता हूँ।


धोखा। 

"एक निराश, हताश से व्यक्ति की

आशावादी अभिव्यक्ति"

कोई नज़्म नहीं है,

"धोखा है"

धोखा है उसके खुद के साथ,
धोखा है पाठक के साथ।
धोखा है यह सबके साथ,
धोखा है समाज के साथ।।

"एक निराश, हताश से व्यक्ति की
आशावादी अभिव्यक्ति"
कोई नज़्म नहीं है,
"धोखा है"

विनोद कुमार शुक्ल के लिए।

ले आओ अपना सारा ज्ञान,
समझ, ज़हन और दिल अपना।

झोंक दो अपना समस्त "मैं"

"विनोद कुमार शुक्ल" की

"कविताओं" में।

किताब

"इतनी किताबें?"


"इतनी सारी?"

"क्या सब पढ़ ली हैं?"

या "बाकी हैं कुछ?"

मेरे घर में,
बहुत किताबें
देखकर उसने
मुझसे पूछा।


"मेरे कमरे में सिवा किताबें कुछ नहीं है" मैं बोला।

"आप भी नहीं?" वो बोली।


इसके बाद ना मैं बोला
इसके बाद ना वो बोली।।

मैं घर से कभी नहीं गया हूँ, जाने के लिए।

मैं "घर" से कभी नहीं गया हूँ,


ना जाता हूँ, ना जाऊँगा

"जाने के लिए"


मैंने हरदम 


यह अमल किया है,

लौटकर आने के लिए।


"जाने" के ख़्याल से मुझको


बेचैनी पेट में होती है।

"लौटना" महसूस होता है,

आस-पास सीने के।



"जाने" में तरतीब से अपना,

सारा सामान जमाता हूँ।

"लौटना" उजलत में कपड़े,
ठूंसवाँ देता है।


"जाने" में लगती है राहें,

बेहद छोटी, मुख़्तसर।

"लौटना" काफ़ी लेता है,
वक़्त नजाने क्यूँ।


जाते वक़्त माँ-बाबा से मैंने,

नहीं कहा कभी "जाता हूँ"

मैंने हंसकर यही कहा है,
लौटकर के "आता हूँ"।


मैं "घर" से कभी नहीं गया हूँ,

ना जाता हूँ, ना जाऊँगा

"जाने के लिए"

मैंने हरदम 

यह अमल किया है,

लौटकर आने के लिए।


द्वेष और कविता।

शाम के आते ही,

चली जाती है धूप।

चली जाती है शाम,
रात के आते ही।।





ज़िन्दगी चली जाती है,
क़ज़ा के आने पर।
कोई दर्द जीवित नहीं रहता,
मौत के पश्चात।।


भोजन के आने पर,
मिट जाती है भूख,
और पानी का आगमन,
मिटाता है प्यास।


सुबह की आमद से,
चली जाती है,
उल्लू की आंखों से रौशनी।
लौट आती है,
उसके जाने पर।


कुछ चीज़ें नहीं रह सकतीं,
साथ प्रकृति में।
उदाहरण हैं ये सारे,
मिसाल हैं।।


एक और उदाहरण है,
और वो ये कि -
"कविता" चली जाती है,
द्वेष/घमंड के आ जाने पर।।


मैं पढ़ता रहूँगा और लिखता भी।


मैं पढ़ता हूँ बेहद कम

और लिखता हूँ बे-कनार
लेकिन कहना चाहूंगा कि -
जो पढ़ता हूँ
रखता हूं याद।

जब पढ़ता हूँ -
केदारनाथ सिंह जी की "पांडुलिपि"
या की उनकी "मातृभाषा"
विनोद जी की कविताओं में छत्तीसगड़ी,
जैसी भाषा।
निर्मल वर्मा का "अंतिम अरण्य"
या भीष्म का कोई अफ़साना।
जब पढ़ता हूँ -
रश्मिरथी, प्रेमचंद या मधुशाला।
जब पढ़ता हूँ इंशा जी को
बनकर पाठक दीवाना।
जब "सस्पेक्टेड", "सिलेक्टेड"
और "प्लूटो" की नज़्में रटता हूँ।
"ग्रीन पोयम्स" में आए कोहसारों पर,
किसी बैत के नशे सा चढ़ता हूँ।।
जब फ़िराक़-फ़राज़-ओ-जौन की
ग़ज़लें और फ़ैज़ की नज़्में पढ़ता हूँ।
जब मुक्तिबोध को पढ़ता हूँ
वे कहते हैं -
"विचार नहीं होती मन की हर प्रतिक्रिया"
और अज्ञेय का कहना है कि -
"मौन स्वयं है अभिव्यंजना।।"
तब मुझको यह लगता है,
अक्सर, मुझको लगता है।
कि अभिव्यक्ति के नाम पर यारों
कुछ अगड़म-बगड़म लिख देना,
और उसमें इल्म लपेट-लपेट कर,
तमाम जहाँ को सीख देना।
यहां वहां की बात उठाकर,
ऐसे-वैसे बक देना
शब्दों, लफ्ज़ के तुक बनाकर,
ऊपर-नीचे रख देना,
साहित्य नहीं है, अदब नहीं है
और नहीं है लिट्रेचर।
"यह नहीं है तो क्या है"
का सवाल मुझे अब घेरे है
तब भी मुझको घेरे था,
अब भी मुझको घेरे है
जिससे बाहर निकलने खातिर -
मैं पढ़ता रहूँगा,
और लिखता भी।
सर्जक।

कवि, 

निर्देशक,
मुसव्विर,
गायक।



संगीतकार,
गीतकार,
अदाकार,
शायर।


बोलते हैं झूठ सारे,
कई दफ़ा, अक्सर।

अपनों से , परायों से,
समाजों से, परिवारों से।
ख़ुद से, ख़ुदा से,
अज़ल से, सदा से।


लेकिन नहीं कहता झूठ कोई,
लेकिन नहीं कहते झूठ कभी,

जब लिखते हैं नज़्में,
रचते हैं फ़िल्म,
रँगते हैं कागज़,
गाते हैं गीत।


अदाकारी हैं करते,
हैं लिखते लिरिक्स,
जब लिखते, बनाते हैं
कोई म्यूज़िक।


अर्थात स्पष्ट है,
कि एक सर्जक,
नहीं बोलता झूठ,
सृजन करते वक़्त।

और अगर बोलता है
तो या रब! 
नहीं करता सृजन,
बस बोलता है - "झूठ"।
Keep Visiting!

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