Monday 3 September 2018

नामकरण।





पूरा जीवन एक मुख़्तसर सफ़र है और हर मुख़्तसर सफ़र एक सम्पूर्ण जीवन। हम आए दिन सफ़र करते हैं -एक शहर से दूजे शहर, एक जगह से दूजी जगह, एक कयाम से दूसरे कयाम की ओर, एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल की जानिब। हर सफ़र अपने आप में अलहदा होता है। किसी में हम किसी के हमसफर बनकर चलते हैं तो किसी में वाहिद। हम आए दिन सफ़र करते हैं, सफ़र करते हैं ज़िन्दगी, मौत तक जाने के लिए। और फिर तय करते हैं मौत के बाद का रहस्यमई सफ़र, वापस जीवन तक आने के लिए। किसी साइकिल के पहिंये की तरह गोल-गोल।

मैं शहर में था, अपने शहर में। और वहां से एक दूसरे शहर जाने के लिए बस स्टैंड पर खड़ा बस का इंतज़ार कर रहा था। शहर का बस स्टैंड काफी छोटा है, गोलाकार और छोटा। इस गोले के पूरे circumference पर मुख्तलिफ दुकानें हैं और diameter पर अलग-अलग शहर तक जाने वाली बस खड़ी रहती हैं।  कानों में इतनी तरह की आवाज़ें गूंजती हैं कि सबकी शिनाख्त करके हर एक की तफसीर देना लगभग ना-मुमकिन है। हाँ एक आवाज़ जो की स्टैंड पर मौजूद नाश्ते की सबसे बड़ी दुकान से आती है की तफ्सील दी जा सकती है क्योंकि यह बाकी तमाम आवाज़ों से ज़्यादा तेज़ है और कान के परदे फाड़ने पर आमादा रहती है।

"जी हाँ! काका श्री होटल एंड नाश्ता पॉइंट। जहाँ आप पाएँगे, कचोरी - पांच की दो, समोसे - पांच के दो, पोहा - दस रूपए, भाजी वडा - पांच रूपए"

"अभी आइये और लाभ उठाइये - पैकिंग सुविधा उपलब्ध - काका श्री होटल एंड नाश्ता पॉइंट"

ऐसे अजीब ओ गरीब और शोर से भरपूर जुमले जो अच्छे खासे आदमी के सर में दर्द उठा दे स्टैंड पर पैहम सुनाई देते हैं। यह जुमले उस नेता की तरह है जिससे आप या तो प्यार कर सकते हैं या फिर नफरत, उसे नकार नहीं सकते, उसे ignore नहीं कर सकते।

आधे घंटे के थोड़े से इंतज़ार के बाद मेरी बस, अर्थात वह बस जिससे मुझे अपनी मंज़िल तक जाना था आ गई। मैं उसके पीछे वाले दरवाज़े के सामने जाकर खड़ा हो गया। ठीक दस सेकंड बाद में बस के भीतर था। किसी तटीय इलाके में आई बाढ़ की तरह लोग मुझे बहा कर बस के भीतर ले गए और मैं उसी भीड़ में ठंस कर खड़ा हो गया।

मैंने जैसे-तैसे अपने बैग को सीट के ऊपर रखा और अपने लिए जगह तलाशने लगा। बहुत देर बाद कहीं जाकर एक सज्जन ने मुझे अपनी खिड़की वाली सीट पर इस शर्त के साथ बैठने दिया कि मैं रास्ते भर उनके बच्चे को अपनी गोद में बैठाए रखूँगा।

"संभलते नहीं तो पैदा क्यों करते हो" मैंने मन में कहा और मुस्कुराते हुए सीट पर बैठ गया। हालाँकि मेरी मुस्कान उस वक़्त एकदम ज़ईफ़ हो गई जब उन सज्जन का भारी-भरकम हाथी, माफ़ करें बच्चा मेरी गोद में आकर बैठ गया। मेरे चेहरे की सारी मुस्कराहट अब उस दुर्जन के चेहरे पर सरक गई थी।

बस चल पड़ी। शहर की संकरी सड़कों से होते हुए जैसे ही वह नर्मदा नदी पर बने पुल पर पहुंची बस कंडक्टर जेब काटने आ गया। प्राइवेट इंटर-डिस्ट्रिक्ट बसों के भीतर टिकट को जेब का पर्यावाची माना जाता है। सबकी काटते हुए वह मेरे पास आया और कहा -

"हम्म!"

"एक भोपाल" मैंने बच्चे की गर्दन नीचे झुंकाते हुए कहा।

"हम्म!" उसने मेरी तरफ एक टिकट बढ़ा दी।

"ह्म्म्म!" उसने मुझसे पैसे लेते हुए, मेरी गोद में बैठे बच्चे की तरफ अपनी आँखों से इशारा किया।

"नहीं, नहीं! यह मेरे साथ नहीं, इनके साथ है" मैंने अपनी आँखों से उस दुर्जन की तरफ इशारा किया।

"हम्म!" उसने दुर्जन को नींद से जगाया।

"क्या, कौन?" दुर्जन हकबका के उठा।

"लाओ भैया" कंडक्टर की आवाज़ सुनकर मुझे लगा जैसे स्वयं श्री कृष्ण बांसुरी बजा रहें हो। भूख लगने पर प्याज़ रोटी भी अच्छी लगती है।

"क्या लाऊं" दुर्जन ने सर खुजाया।

"अबे! कहाँ जाना है? पैसे लाओ" कंडक्टर लगातार बोल रहा था।

"हाँ, अब्दुल्लागंज की बनाओ" दुर्जन ने अपनी जेब में हाथ डाला।

"एक सौ बीस रूपए" कंडक्टर ने टिकट बनाई।

"एक के एक सौ बीस?" दुर्जन फिर हकबकाया।

"अब ये मत कहना कि वह बच्चा तुम्हारा भी नहीं है" कंडक्टर परेशान हो गया।

"हमारा है, लेकिन उसके पैसे कैसे, वह दो गोद में बैठा है, सीट पर थोड़ी" दुर्जन ने सफाई दी।

"अरे! भैया आप ही समझाइये" कंडक्टर ने मेरी तरह देखा।

"हम्म! हम्म!" मैंने उसे देखा।

कंडक्टर आगे बढ़ गया और मुझे समझ आया कि दुर्जन को तकलीफ अपने बच्चे से नहीं उसकी टिकट से थी।
बचाने वाला काटने वाले से ज़्यादा धूर्त होता है।

बस तेज़ी से अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी। खेत, खलियान, जंगल आंखों में दौड़ रहे थे और पैरों में से दौड़ने की क्षमता लगभग जाती हुई मालूम हो रही थी। बच्चा वाकई भारी था। पैर दर्द से भर चुके थे और दिमाग बस में बज रहे अस्सी के दशक के गानों से।

खैर भगवान के घर में देर है, अंधेर नहीं। कुछ ही देर में अब्दुल्लागंज आ गया और मेरी जान में जान आ गई।

"आपका धन्यवाद भाई" दुर्जन ने सीट से उठते हुए कहा।

"आपके मुँह में कीड़े पड़ें, माशा-अल्लाह!" मैंने मन से कहा और "कोई बात नहीं, लोगों की मदद करने में मुझे हमेशा अच्छा लगता है" अपनी ज़बान से। कायनात के अस्सी प्रतिशत मरासिम या रिश्ते ज़बान की वजह से ही कायम हैं वरना अगर एक इन्सान दूसरे के मन की बात पढ़ पाता तो ना कोई दोस्ती-यारी होती और ना कोई रिश्तेदारी।

वे ख़ुशी-ख़ुशी अपने बच्चे को लेकर नीचे उतर गए।

"भगवान ने चाहा तो फिर मुलाक़ात होगी भैया जी" उसने कहा और बस स्टैंड की भीड़ में कहीं ओझल हो गया। ना उसने मुझे अपना नाम बताया और ना मैंने पूछा। ख्याल ही नहीं आया कि नाम पूछ लूँ। शायद इसलिए क्योंकि मैं पहले ही उसका नाम रख चुका था - दुर्जन। किसी अनजान शख्स का नाम ना पता हो तो हम उसके कर्मों के आधार पर उसका नामकरण कर देते हैं।

मैं स्टैंड की भीड़ को देखने में मसरूफ हो गया और दस मिनिट बाद बस भोपाल की ओर बढ़ चली।

"मैं यहाँ बैठ जाऊं" एक लम्बी दाढ़ी वाले व्यक्ति, जिनके सर पर बड़ा सा टीका और तन पर सिर्फ एक सफ़ेद धोती लपटी थी ने मेरे बगल में बैठते हुए पूछा। उनके मुँह खोलते ही उसमें भरे तम्बाखू के छींटे मेरे चेहरे पर आ चिपके।

"इसमें पूछना की क्या ज़रूरत है ढ़ोंगी जी" मैंने मन से कहा और "आप ही की सीट है बाबा जी" ज़बान से। एक और नामकरण हो चुका था। बस भोपाल की ओर अग्रसर थी।

Keep Visiting!

No comments:

Post a Comment

पूरे चाँद की Admirer || हिन्दी कहानी।

हम दोनों पहली बार मिल रहे थे। इससे पहले तक व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर बातचीत होती रही थी। हमारे बीच हुआ हर ऑनलाइन संवाद किसी न किसी मक़सद स...