Monday 13 August 2018

बहरीन का एक दिन : रोहिणी सुन्दरम।


अपनी मंज़िल तक जाते हुए या कि वहां से वापस आते हुए, सफ़र के दौरान या कभी-कभी अपने घर में। किसी आसपास की मस्जिद से आती अज़ान की आवाज़ को सुनकर मैं यही सोचता के आखिर यह आवाज़ दिन में पांच बार क्यों होती है? किस लिए? क्या वजह है? क्या हर अज़ान का कोई मतलब है? तय वक़्त है? सबब है?
इन तमाम-तमाम सवालों के जवाब मुझे मिले इस किताब में, इस मुख़्तसर लेकिन दिलचस्प किताब "अ डे इन बहरीन" में।

इस किताब की पृष्ठभूमि कुछ इस तरह तैयार की गई है कि पाँचों वक़्त की नमाज़ों का अर्थ एक-एक कर के समझाया गया है। लेखिका रोहिणी सुंदरम इससे पूर्व भी कई मुख़्तसर अफ़साने गढ़ चुकी हैं और उन्हें किताबों की शक़्ल में तब्दील भी कर चुकी हैं। उनकी किताबें ना केवल उनके अनुभवों पर वरन उनकी अनुभूतियों पर भी आधारित हैं।

इस किताब की बात करूँ तो यह बहरीन के मनामा शहर में रह रहे पांच मुख़्तलिफ़ लोगों का अफ़साना है जो कि मुख़्तलिफ़ ज़रियों और मुख़्तलिफ़ हालातों की वजह से अंत में एक ही जगह आकर वाबस्ता हो जाते हैं। ठीक किसी मल्टी-स्टारर फ़िल्म की तरह।

यह कहानी है श्रीलंका से बाईस साल पहले बहरीन आई अमीता की जो कि एक हाउस मेड है और घर-घर जाकर भिन्न-भिन्न तरह के काम करती है। वह अपनी दो सहेलियों अनीता और शांता के साथ एक ही घर में रहती है और कड़ी मेहनत से पैसा कमा कर अपने बच्चों को पालती है। उसकी ज़िन्दगी हमेशा से अज़ाबों से घिरी रही है। उसने बहुत पहले अपने पिता को खो दिया था और अपने भाई की गुमशूदगी पर कभी भी रो पड़ती थी। अपने नशेड़ी पति से तंग आकर उसने खुद ही अपने बच्चों को पालने-पोसने का इरादा किया था और इसलिए बहरीन आ गई थी। उसका सपना था कि वह अपना खुद का घर बनाए और उसमें चैन से अपनी बाकी की ज़िन्दगी काटे।

यह कहानी है ब्रिटेन से ताल्लुक़ात रखने वाले बैंक कर्मचारी ऐडम की जो अपनी पत्नी एंजेला और बच्चों आरोन और एश्ली के साथ सुकून की ज़िन्दगी बिता रहा है।

यह फसाना है भारत के नगर कोच्चि से सम्बन्ध रखने वाले फ्रांसिस कुट्टी का जो कई सालों से बहरीन में टूर एन्ड ट्रेवल्स इंडस्ट्री से जुड़ा हुआ है। टैक्सी से लेकर ट्रक तक सबकुछ चलाने में माहिर फ्रांसिस बहरीन में अकेला रहता है और अपने बच्चे और पत्नी की याद में दिन काटता है।

यह अफ़साना है एक फिलीपीनी लड़की रोज़ीटा का जो अपनी एक दोस्त वेंडी के साथ बहरीन में रहती है और ब्यूटी सलून में काम करती है। पति द्वारा छोड़ दिए जाने के बाद वह अकेली ही अपने बच्चों की देखभाल करने को मजबूर है और इसलिए फिलीपींस में रह रही अपनी माँ और बच्चों से दूर बहरीन में काम करती है।

इन चारों के अलावा यह कथा इक्कीस वर्षीय मोहम्मद ईसा की भी है जो अपने इक्कीसवें जन्मदिन को लेकर बेहद खुश और जिज्ञासा से भरा हुआ है। वह इस बात को सोचने में मसरूफ़ है कि उसके अमीर पिता उसे नज़राने के तौर पर क्या देने वाले हैं।

दिन की पहली नमाज़ "फज्र" से शुरू हुआ यह अफ़साना दिन की आखिरी नमाज़ "इशा" पर जाकर ख़त्म होता है और सिर्फ इस एक दिन में इस फ़साने की अफ़साना-निगार हमें कई सारे मानवीय-मूल्यों, भावों और फितरतों से मिलवाती हैं।

हर चैप्टर का अंत इस तरह से किया गया है कि अगले को जल्द से जल्द पढ़ने की जिज्ञासा मन में आप ही उतरती है। पांच लोगों का फसाना कहते हुए लेखिका हर चैप्टर में हर पात्र की कहानी को अधूरा छोड़ देती हैं जिससे कि आगे पढ़ने की जिज्ञासा और प्रबल होती जाती है।

बहरीन और उसके नैसर्गिक वातावरण का वर्णन जिस खूबसूरती से किया है वह काबिल-ए-तारीफ है। छोटी-छोटी घटनाओं से ज़िन्दगी के नाज़ुक फ़लसफ़े समझाने की कोशिश साफ़ नज़र भी आती है और कामयाब भी होती है।

जिस तरह विभिन्न नदियां आखिर में जाकर समंदर से मिलती हैं ठीक उसी तरह पाँचों पात्रों की कहानियां भी अंत में एक ही जगह आकार क़याम ले लेती हैं। इस किताब की सबसे खूबसूरत बात यह है कि इसके बारे में अधिक कहने से यह पूरी की पूरी खुल जाएगी ठीक किसी छुईमुई के पौधे की तरह।

अमीता, ऐडम, फ्रांसिस, रोज़ीटा और मोहम्मद ना केवल पांच लोग हैं बल्कि गौर से देखा जाए तो यह वह पांच तरह की ज़िन्दगियाँ हैं जिन्हें लेखिका ने पांच वक़्त की नमाज़ को पूरा करते हुए समझाया है या कहें कि समझाने की कोशिश की है। यह फसाना है सपनों का, प्यार का, लगाव का, इंतिज़ार का, इंसानी-फ़ितरत का, मानवीय-भावों का। यह फसाना है एक दिन का, बहरीन के एक दिन का।


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