Sunday 12 August 2018

जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं।


एक जंगल था बहुत बड़ा,
पेड़, शजर, जानवर वाला।
एक जंगल था बहुत बड़ा,
नदियों वाला, पत्थर वाला।


एक जंगल जहाँ गुल ओ फ़ूल थे
एक जंगल जहाँ आबशार था।
एक जंगल जो खुशहाल बहुत था
मौला का शाहकार था।


उन्तीस हिस्सों में बटें हुए
उस जंगल में कई पेड़ थे
नइ-नइ करके शायद, ग़ालिबन
130 करोड़ होंगे।


हर हिस्से का अपना राजा,
हर हिस्से का अपना शेर
हर हिस्से की अपनी प्रजा,
हर हिस्से के अपने पेड़।


एक रोज़ अरब सागर से,
जंगल के मग़रिब हिस्से से,
बादल उभरा एक बड़ा सा,
तमाम दश्त पर छा गया।


तूफ़ान मचा और आंधी आई
जंगल में अंधियारी छाई।
बात उड़ी हर सम्त, हर दिशा,
बारिश आने वाली है।


एक बूँद पानी की टपकी,
एक खरगोश के माथे पर,
मान लिया उसने के वाकई,
बारिश आने वाली है।


फ़िर सारे जंगल वह भागा,
बात हवा सी फैला दी,
पेड़, जानवर सबको लगा कि,
बारिश आने वाली है।


सब पहुँच गए नीचे बादल के,
बारिश की राह तकने लगे।
एक बूढ़ा हाथी देख सभी को,
आया और अपनी बात रखी।


देखो पेड़ों और पंछियों,
जानवरों और भाई खरगोश,
ये गरजने वाला बादल है।
मानो मेरी बरसेगा नहीं।


यहाँ हाथी ने बात रखी और,
वहां ज़ोर की बर्क चमकी,
उस रोज़ बाद से कभी वो हाथी,
कहीं, किसी को नहीं दिखा।


दिन बिता, हफ़्ते बीते,
फिर महीने, साल भी।
दर्द उठ गया सबकी गर्दन में,
लेकिन बारिश नहीं आई।


अब वह बादल फिर गरजा है।
गरज रहा है ज़ोरों से,
बूंदा-बांदी फिर चालु है,
उसके निकम्मे पोरों से।


ख़रगोश ने फिरसे दौड़ भरी है,
अब नहीं है हाथी भी,
कौन बताएगा सबको के -
"जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं"।

Picture Credits - Shesh Kiran Arts

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