Sunday, 22 July 2018

शायरी से मेरा तारुफ़ और राहत साहब।



शेर, शायरी, नज़्म, अफसानों और अदब की इन तमाम सफों में मैं इतना आगे आ गया हूँ कि "वापस लौटना मुमकिन है" का ख्याल ही ना-मुमकिन मालूम होता है। लिखना शुरू क्यों किया का जवाब मेरे पास नहीं है और क्यों लिख रहा हूँ का जवाब मैं खोजना नहीं चाहता। अदब शिव के उस लिंग की तरह है जिसका ना कोई आदि है और ना ही अंत। स्वयं ब्रम्हा इसकी खोज नहीं कर पाए थे तो फिर मैं तो सिर्फ इंसान हूँ, एक आम फर्द, एक आम बशर। अफसानों और नज़्मों पर किसी और दिन तफ़सील से लिखूंगा फिलहाल शायरी की बात लिख दिए देता हूँ। बात तीन या शायद दो साल पहले की है। जयपुर साहित्य उत्सव के लिए इंदौर से तड़के सुबह छह बजे अपने चार दोस्तों के साथ रणथम्बोर एक्सप्रेस से जयपुर रवाना हुआ था। रास्ते में मुझे ऊंघता देख मेरे एक दोस्त ने उसका मोबाइल मेरी तरफ बढ़ाया और कहा "यह देखो चौरे, राहत इन्दोरी को सुनो, शायर हैं, इंदौर के ही हैं" मैंने बात मान ली और इयर-फोन्स कान में डालकर सुनने लगा। "शाखों से टूट जाएं, वो पत्ते नहीं हैं हम/आँधियों से कोई कहदे के औकात में रहे" दो सफ़ और पूरा सभाग्रह तालियों से गूँज गया। लोग खड़े हो-होकर दाद देने लगे, हाथ अपने आप वाह-वाह करने के लिए ऊपर उठने लगे। मेरे रोंटे खड़े हो गए। "यह कौन आदमी है?" "शायरी क्या है?" "शेर क्या है?" सवालों का काफिला मेरे भीतर कूच कर गया। सोचा कि पांच मिनिट के काव्य-पाठ के बाद जो तालियाँ सुनाई देती हैं वह यहाँ मात्र दो सफ़ के बाद सुनने को मिल रही हैं। एक उचंग, एक इच्छा मन में जागी। राहत इन्दोरी को जानने-समझने-पढ़ने की इच्छा। एक के बाद एक उनके सारे यू-ट्यूब वीडियोज़ देख लिए और फिर कुछ किताबें भी पढ़ डालीं। यहीं से शुरू हुआ शायरी का दौर। राहत साहब के पहले शेर का असर इस क़दर मुझपर छाया था कि अपनी ज़िन्दगी का पहला शेर या उसे मात्र "दो सफ़" कहलें मैंने राहत साहब को ही नज़र करते हुए कहा। शेर कुछ यूँ था "झूम उठते हैं शहर दो शेर सुनकर/तुम पूछते हो शायर की औकात क्या है?" इसे शेर को कहने के पीछे कई कारण थे, कई परतें थीं। तंज़ था, व्यंग्य था, राहत साहब का एहतिराम था और एक खुद्दार लफ्ज़ था "औकात" इस लफ्ज़ को यहाँ इस्तेमाल कर लेने का कारण सिर्फ और सिर्फ राहत साहब और उनका वह लहज़ा था जिसने मुझे शायरी की ओर आकर्षित किया। इसके बाद फराज़, फैज़, फाकिर, जॉन, दुष्यंत, मुनव्वर राणा और बाकी तमाम-तमाम शोर से तारुफ़ हुआ जो अभी ना के बराबर ही है। महसूस तो यही होता है कि अभी सब कुछ शून्य है। मेरी समझ, मेरा इल्म, मेरी शायरी, मेरा तसव्वुर। बहरहाल इन बातों का कोई अंत नहीं है, कोई मकाम, कोई अंजाम, कोई मंजिल नहीं है। सतत प्रक्रिया है जो सदेव चलती रहेगी और शायद रोज़-ए-महशर तक चलेगी। "गुलज़ार" का नाम मैंने यहाँ या ऊपर लिखे कुछ नामों में क्यों नहीं लिया" का सवाल अगर आपके ज़हन में आया हो तो उसे ज़्यादा बड़ा आकार ना लेने दें क्योंकि वह शख्स मेरे लिए एक लेख से कई गुना बड़ा और विस्तृत है। उनकी और मेरी मुलाक़ात की तफ़सीर किसी और रोज़ दूंगा। फिलहाल के लिए पढ़ें राहत साहब के यह ग़ज़ल जो मुझे बेहद पसंद है।


आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो
राह के पत्थर से बढ़ कर कुछ नहीं हैं मंज़िलें
रास्ते आवाज़ देते हैं सफ़र जारी रखो
एक ही नद्दी के हैं ये दो किनारे दोस्तो
दोस्ताना ज़िंदगी से मौत से यारी रखो
आते जाते पल ये कहते हैं हमारे कान में
कूच का ऐलान होने को है तय्यारी रखो
ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे
नींद रखो या रखो ख़्वाब मेयारी रखो
ये हवाएँ उड़ जाएँ ले के काग़ज़ का बदन
दोस्तो मुझ पर कोई पत्थर ज़रा भारी रखो
ले तो आए शाइरी बाज़ार में 'राहत' मियाँ
क्या ज़रूरी है कि लहजे को भी बाज़ारी रखो
Keep Visiting!

No comments:

Post a Comment

पूरे चाँद की Admirer || हिन्दी कहानी।

हम दोनों पहली बार मिल रहे थे। इससे पहले तक व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर बातचीत होती रही थी। हमारे बीच हुआ हर ऑनलाइन संवाद किसी न किसी मक़सद स...