Tuesday 24 July 2018

परसाई इन मुम्बई।



नमस्कार! मैं परसाई, हरिशंकर परसाई। लेखक, अध्यापक, व्यंग्यकार। पहचाना? आपका मुझे ना पहचानना इस बात का सबूत है कि आपने अपनी पढ़ाई ठीक से नहीं की। कम से कम स्कूली पढ़ाई तो बिलकुल भी नहीं। आठवी से लेकर बाहरवी तक के हिंदी-सिलेबस में मेरी कहानियां पढ़ाई जाती हैं। और समझाई भी जाती हैं, ऐसी मैं आशा करता हूँ। आज मैं यहाँ आपके सामने इतने सालों बाद अचानक क्यों आया का जवाब इस शख्स के पास है जो अभी मेरे बगल में बैठकर मेरी कही बातों को लिख रहा है। लेखक रहते मैंने अपना ज़्यादातर समय जबलपुर, इटारसी, होशंगाबाद, जमानी आदि में ही काटा और मुम्बई-दिल्ली कम ही जाना हुआ। लेकिन आज कुछ निजी सबब की वजह से मैं मुम्बई आ पहुंचा हूँ और अपने एक पाठक के ज़रिये अपने कुछ अनुभव आपके साथ साझा कर रहा हूँ। यहाँ मरीन-ड्राइव से लैंप पोस्ट के नीचे, प्रेमी जोड़ों के बीच में, समंदर की आवाज़ों के ऊपर। एक तरफ "वह" अपना मोबाइल लिए बैठा है। कहता है इस ही में लिखेगा। मुझे यकीन नहीं हो रहा लेकिन फिर भी अपना ही पाठक है, इसकी नहीं सुनूँगा तो किसकी सुनूँगा। और दूसरी तरफ बैठा मैं अपने अनुभव सुना रहा हूँ।

"सरकार बहुत खुश हुई, प्रशासनिक महकमे में लड्डू बांटे गए। अखबार में खबर थी "परसाई नहीं रहे", "व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का निधन"। आसमानी दुनिया हिल गई। यमराज मुझे लेने नहीं आए, अपने दो दूत भेज दिए। ऐसा उन्होंने क्यों किया का कारण आज तक उन्होंने मुझे नहीं बताया। वहां, स्वर्ग या नर्क मैं नहीं जानता पहुँचते ही मुझे असुरों ने Hire कर लिया। तनख्वाह उन्होंने बताई नहीं, बस आँखें बताई और उनका काम हो गया। कई सालों तक मैं उनके कहने पर इंद्र और बाकी देवताओं के खिलाफ व्यंग्य लिखता रहा। वहां इस बात की खूब चर्चा थी कि धरती पर यह शख्स वहां की सरकारें हिला देता था। तो यहाँ की भी हिला ही देगा। इस बात पर आप विश्वास करें ना करें, सत्य यही है। आसमानी बातें आप धरती वालों के समझ में वैसे भी कैसे आएंगी। खैर देवताओं पर मेरे व्यंग्य ज़्यादा कारगर नहीं रहे। और असुर मुझपर भड़क गए। मैंने उन्हें समझाया कि मैं एक मानव था और कई दिनों से मानवीय दुनिया से दूर रहने की वजह से लिख नहीं पा रहा हूँ। इसलिए मुझे कुछ दिनों के लिए धरती पर भेजा जाए। मेरी प्रार्थना क़ुबूल हुई और चित्रगुप्त को एक  Notice भिजवा दिया गया। लेकिन कुछ दिनों की अवधि को कुछ घंटों में बदल दिया गया। मुझे यम के उन्हीं दूतों ने धरती पर छोड़ा जो मुझे लेने आए थे।

ऊपर से नीचे आते हुए मुझे भारत की धरती पर काले-काले धब्बे नज़र आए। मैं अचरज में पढ़ गया और बहुत हद्द तक हैरानी में भी कि क्या काले काम करने वाले लोग अब काले कपड़े भी पहनने लग गए हैं? क्या यह कोई सरकारी ऐलान है? या भ्रष्टाचारियों ने स्वयं काला लिबास ओढ़ना स्वीकार किया है? माजरा क्या है? मैंने दूतों से दरख़्वास्त की के मुझे उसी काले इलाके में ले चलें। नीचे आते ही मालूम हुआ कि काले धब्बे लोग नहीं बल्कि उनके छाते थे। बारिश का मौसम था और इस मौसम में मैं मुम्बई आ पहुंचा था। असुरों की सहायता करते-करते मैं थक चुका था और अंजाने में देवताओं से दुश्मनी भी मोल ले चुका था। देवताओं को खुश करने का तरीका त्रिदेव में से किसी एक को खुश कर देना था और मेरे ज़हन में पालनकर्ता भगवान विष्णु का नाम कौंध गया। भगवान को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मणों ने कई पोथी-पुराण और कई पूजा-प्रक्रिया बनाई हैं लेकिन उनके लिए मेरे पास वक़्त और पैसा दोनों नहीं था। पैसौं का ख्याल आते ही ख्याल आया माँ लक्ष्मी का और मैंने सोचा कि यदि माँ खुश हो गई तो पिता तो हो ही जाएंगे। सो इसलिए मैं सबसे पहले महालक्ष्मी मंदिर पहुँचा। पांच मिनिट चलने के बाद जब मैं किसी से पूछता के भाई लक्ष्मी मंदिर कहाँ है तो वह कहता "बस पांच मिनिट की दूरी पर" अगले पांच मिनिट के बाद मिलने वाला आदमी भी यही कहता और उसके बाद वाला भी। यह सिलसिला पूरे पच्चीस मिनिट चला और पांच लोगों की मदद से मैं जैसे-तैसे मंदिर पहुंचा।

मंदिर के बाहर लंबी-लंबी सफों में खड़े भक्त जो लक्ष्मी मैया तक पहुंचना चाहते थे। भिन्न-भिन्न तरह के और मुख़्तलिफ़ इलाकों से आए मालूम होते थे। गुजराती से लेकर बंगाली, मराठी से लेकर पंजाबी और बिहारी से लेकर बिहारी सब के सब लाइन में लक्ष्मी के दर्शन के लिए खड़े थे। पैसा परिवार तोड़ता होगा लेकिन यहाँ देश को जोड़ रहा था। सभी एक दूसरे को धक्का मार कर, गिरा कर, या बस चले तो कुचलकर भी। माता तक पहुंचना चाहते थे। सबके हाथों में पूजा की थाली, प्रसाद और कमल का बड़ा सा फ़ूल दिखाई दे रहा था। यह सब शायद वह इन्वेस्टमेंट हैं जिन्हें माँ लक्ष्मी सूत समेत लौटाती होंगी। जिसका जितना ज़्यादा इन्वेस्टमेंट उतनी ज़्यादा रिटर्न की उम्मीद। मैं भी अपने खाली हाथ हिलाते हुए लाइन में शामिल हो गया और लक्ष्मी मैया तक पहुंचने का इंतज़ार करने लगा।

मेरे पीछे एक चाचा जनकी उम्र पेंसठ के पार होगी लक्ष्मी को पाने के लिए सबसे अधिक उत्साहित थे। वे हर पांच मिनिट बाद चिल्लाते "बोलो लक्ष्मी मैया की" "जय" पूरी लाइन चिल्लाती। मैंने सोचा की उन्हें अपने आगे कर दूँ तो माँ लक्ष्मी से जल्दी मुलाक़ात करने दूँ क्योंकि किसी भी वक़्त यमराज उन्हें लेने आ सकते थे। चाचा को आगे कर मैं पीछे हो गया। मरने के बाद लक्ष्मी का मोह छूट ही जाता है।

अब मेरे पीछे एक गुजराती व्यापारी आ कर तन गया जिसकी गोद में उसका पांच-छे साल का बच्चा था। वह बच्चे से क्या कह रहा था यह मैं जस का तस तो नहीं बता सकता लेकिन अनुभव से कह सकता हूँ कि वह अपने बच्चे को लक्ष्मी तक पहुंचने के मार्ग बतला रहा था। वह कभी उसके हाथ में कमल पकड़ाता तो कभी प्रसाद की थैली। और कभी उसके हाथ अपने हाथ में पकड़कर उनसे जान-बूझकर तालियां बजवाता। जैसे बता रहा हो कि मेरे बाद यह है। मेरे बाद इसपर कृपा बरसाना।

दूसरी लाइन में खड़ा हुआ मैं अपनी बारी की राह तक रहा था कि अचानक मेरे बगल वाली लाइन छोटी हो गई। मेरे पीछे खड़े दर्जन भर लोग उस लाइन की तरफ भाग लिए और लक्ष्मी के दर्शन हासिल कर लिए। शॉर्ट-कट से। "अब नसीब-नसीब की बात है" उस लाइन में शामिल हुए एक शख्स मुंह ही मुंह में बड़बड़ाया। मैं वहीँ खड़ा-खड़ा सोचने लगा कि क्या दिन आ गए हैं आजकल व्यंग्यकार पर व्यंग्य होने लगे हैं।

बहरहाल मेरी बारी भी जल्द आई और मैं माँ लक्ष्मी की विशालकाय स्वर्ण मूर्ती के सामने जा पहुंचा। मैं झुका, आँखें बंद की और अपने हाथ जोड़के देवताओं से अपनी बात चलवाने का प्रस्ताव माता के सामने रखने लगा। अपनी अरदास पढ़ ही रहा था कि एक ज़ोर के झटके ने मुझे हिला दिया। जब गर्दन उठाई और आँखें खोलीं तो देखा कि मैं बाहर था, मंदिर से बाहर। लक्ष्मी माँ पल भर को आई और ओझल हो गईं। लक्ष्मी किसी के पास नहीं टिकती, लोग कहते हैं। लोग लक्ष्मी के पास नहीं टिकते, मैं कहता हूँ। टिकने दिया जाए तब टिके ना।

माँ लक्ष्मी को अपनी आधी-अधूरी प्रार्थना सुनाने के बाद मैंने सोचा के कुछ पल समंदर के करीब बिताए जाएं क्योंकि वहां ऊपर तो बादलों में बने छोटे तालाबों के सिवा कुछ है नहीं। ईश्वर ने कुछ बेहतरीन चीज़ें खुद ना रखकर मानव को दी हैं।

"समंदर कहाँ है?" मैंने एक लड़के से पूछा।

"कौनसा समंदर चाहिए" उसने पूछा।

"यहाँ कितने हैं?" मैंने देकर मारा।

"टैक्सी से चले जाइए" वह हँस दिया और मैं भी।

टैक्सी खोजते हुए इस बात का एहसास हुआ कि यह तो घांस में सुई तलाशने से ज़्यादा कठिन है। अपनी आने वाली कहानियों में "यह काम तो खेत में सुई खोजने जैसा है" कि जगह "यह काम तो मुम्बई में टैक्सी पकड़ने जैसा है" का इस्तेमाल करने का प्रण मैंने उस टैक्सी में लिए जो मुझे बहुत जद्दोजहद के बाद मिली थी। उस टैक्सी से मैं मरीन-ड्राइव आ पहुंचा और लोगों की बातें सुनने लगा। यहां कुछ आम लोग जो कि मध्यप्रदेश के मेरे ही इलाके से आए मालूम होते थे किसी उद्योगपति की इमारत को ताक रहे थे। वे उसे देख-देखकर उसकी तारीफ़ भी कर रहे थे और खुद भी मुस्कुरा रहे थे। उसकी कमाई, उसके पहनावे, उसके बच्चों, उसके बच्चों के स्कूल, उसके बच्चों के कच्छों आदि पर बात कर-करके खुश हो रहे थे, सपने देख रहे थे। इस देश के आम लोगों पर दया आती है, आँखों से आँसूं छलक आते हैं और आवाज़ रूंध जाती है। इतने साल, इतने व्यंग्य लिखते हुए सैकड़ों बार इसी तरह रो पड़ता था और तब जाकर हँसते हुए व्यंग्य लिख पाता था। कभी-कभी, दर्द ही हास्य को जन्म देता है।

"समंदर की लहरें तेज़ हो गई हैं। कानों में सिर्फ वही सुनाई पड़ रही हैं", उसने कहा।

एकाएक मेरा ध्यान उसपर और मोबाइल पर चलती उसकी उँगलियों पर गया। मैंने कहना बंद कर दिया और उसने लिखना। "इस बार के लिए बस हुआ" का ख़्याल आँखों में तैर आया और मैं आसमान ताकने लगा। यम-दूत आते नज़र आए और वह जाता हुआ।

अच्छा लगा वापस आकर। मालूम हुआ कि इतने सालों के बाद आज भी इस देश में व्यंग्य जीवित है, हास्य जीवित है क्योंकि यहाँ का दर्द ज़िन्दा है। जस का तस, वैसा का वैसा।

यदि इस लेख से किसी की भावनाएं आहात हो जाएं तो इसके लेखक पर Case ना करें। अपने विवेक से काम लें।लेखक ने तो सिर्फ़ लिखा है। कहा तो मैंने है। मैंने, परसाई ने, हरिशंकर परसाई ने।"

Keep Visiting!

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