Monday 2 July 2018

राम के नाम।


Saints, I see that the world is mad.
if I say the truth they rush to beat me
and if I lie they trust me.

- Kabirdas


भारत के सबसे बड़े राज्यों में से एक उत्तर प्रदेश की राजनीति हमेशा से ही जात और धर्म की रही है। यह कहते हुए मुझे किसी भी तरह का संदेह नहीं होता क्यूंकि इसके प्रत्यक्ष प्रमाण वहां के चुनावों और सियासत में आए दिन देखने को मिलते हैं। और भला कौन भूल सकता है 6 दिसंबर 1992 का वो सुर्ख, रक्तरंजित दिन जिसने सैकड़ों मासूमों की जान ले ली और हज़ारों को घायल कर दिया। बाबरी मस्जिद विध्वंस पर इससे पूर्व भी तफसील से लिख चुका हूँ लेकिन यह मौज़ू ही कुछ ऐसा है कि इसपर जितना कहा और पढ़ा जाए कम है। दिल को तस्कीन नहीं मिलती, चैन नहीं पड़ता।

देश के जाने-माने डॉक्यूमेंट्री फिल्म-मेकर आनंद पटवर्धन ने अपनी पूरी टीम के साथ मिलकर 1992 में ही "राम के नाम" नामक डॉक्यूमेंट्री रची थी। सवा घंटे की इस फिल्म में उन नेताओं, उन सियासतदानों और उन लोगों की तफसीर मिलती है जो इस भारी काण्ड में शामिल थे, शरीक थे। फिल्म की शुरुआत बाबरी के इतिहास से होती है जिसके बारे तफसील से में बहुत पहले ही कह चुका हूँ। बहरहाल आनंद पटवर्धन की दृष्टि से एक और बार स्थिति साफ़ किये देता हूँ।

दरअसल बाबरी मस्जिद का निर्माण 1528 में मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के राज में हुआ था। इसके निर्माण से जुड़ी जो दो कहानियां इतिहास में प्रचलित हैं उन्हें आपके सामने जस का तस पेश किये देता हूँ। पहली तो यह की बाबर ने बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया और उसका नाम अपने प्रेमी "बाबरी" के नाम पर रखा। माना जाता है की बाबर अभयलिंगी अर्थात बायसेक्शुअल था। दूसरी कहानी यह की बाबर ने अपने राज में मीर बाक़ी को अवध प्रान्त का गवर्नर बनाकर अयोध्या भेजा था। मीर ने अपने सुलतान की शान में वहां पर भव्य मस्जिद का निर्माण करवाया और उसका नाम बाबर के नाम पर ही बाबरी मस्जिद रखा। गौरतलब है की तुलसीदास जी ने रामचरित्र मानस का लेखन इस घटना के पचास साल बाद किया। उन्नीसवी शताब्दी के आते आते अयोध्या राम मंदिरों से भर गया और करोड़ों हिन्दू यहाँ उनकी पूजा करने आने लगे।

बाबरी मस्जिद का जो किस्सा आज भारत के गले की फांस बन चुका है अंग्रेजों द्वारा शुरू किया गया था। कश्मीर की ही तरह यहाँ भी हिन्दू-मुस्लिम सद्भावना को हानि पहुंचाने और उनके बीच लड़ाईयां करवाने के उद्देश्य से ही अंग्रेजों ने यह अफवाह फैलाई की बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम का जन्म हुआ था और इसलिए वहां मंदिर होना चाहिए। इस बात को मानकर हिन्दुओं ने मस्जिद के बाहर एक ओटले पर भगवान राम की प्रार्थना करना आरम्भ कर दिया और मुस्लिम-जन मस्जिद के भीतर अज़ान पढ़ते रहे।

दंगे-फसाद की शुरुआत हुई सन 1949 में जब अखिल भारतीय रामायण महासभा नाम की संस्था के कुछ लोगों ने रातों रात मस्जिद के भीतर राम की मूर्ती रख दी और यह बयान दिया की राम स्वयं वहां प्रकट हुए हैं (भय प्रकट कृपाला, दीन दयाला) इस घटना के बाद फैज़ाबाद समेत देश भर में दंगे-फसाद हुए और हज़ारों की तादात में लोग मारे गए। तत्कालीन कलेक्टर के.के. नैय्यर ने हालात देखते हुए स्थल को विवादित करार दे कर बंद करवा दिया। इसके बाद काफी वक़्त तक यह मामला शांत रहा लेकिन राजीव गाँधी की कांग्रेस सरकार ने मंदिर के दरवाज़े दोबारा खुलवा कर सालों से बुझी आग को फिर सुलगा दिया।

199० में राजनीतिक लाभ हासिल करने के मंसूबों के साथ भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता लाल कृष्ण आडवानी ने सोमनाथ से राम रथ यात्रा का आग़ाज़ कर दिया। मकसद था अक्टूबर 1990 में अयोध्या पहुंचकर बाबरी को गिरा देना। इस अंधे कुँए में कूदने के लिए देश भर से लाखों कर-सेवक उमड़ पड़े। भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष सियासतदान और विश्व हिन्दू परिषद् के अशोक सिंघल ने लोग इकठ्ठा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और 6 दिसंबर 1992 को बाबरी गिरा दी गई। पूरा देश जला, लोग मरे, बच्चे रोए, औरतें विधवा हुईं लेकिन सबकुछ माफ़ क्यूंकि सबकुछ राम के नाम पर था। तब का दिन था और आज का दिन है यह मामला अब तक सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है और अरबाब-ए-सियासत आज भी इसी उनवान पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश के शीर्ष नेता का बयान और कुछ वर्ष पूर्व हुए सिहंस्थ में हुई बातचीत से यही ज़ाहीर होता है की यह मामला और कितना विनाश करेगा।

इस फिल्म में हम उन लोगों के बयान सुनते हैं जो फैज़ाबाद या अयोध्या के अंदरूनी इलाकों में रहते हैं। वे कहते हैं की उनके लिए हिन्दू-मुस्लिम सब एक हैं और जब तक कोई बाहरी आसामाजिक तत्व आकर उन्हें भड़काता नहीं वे कोई गलत कदम नहीं उठाते। अर्थात आम लोग फसादात नहीं चाहते, दंगे नहीं चाहते, मार-काट नहीं चाहते, लड़ाई नहीं चाहते। तो फिर इस सब की चाहत कौन रखता है? आप खुद समझदार हैं, दानिश-वर हैं। विचार करें, अवश्य करें। अयोध्या राम मंदिर के सरकारी महंत लालदास जी इस फिल्म के एक इंटरव्यू में कहते हैं की - "जब कभी तेज़ बारिश होती है तो बड़ी बड़ी घांस उग आती है, सही रास्ता नज़र नहीं आता। ठीक इसी तरह जब पाखण्ड बढ़ता है तो उससे उपजे धर्म की घांस सच्चाई को छुपा देती है" लेकिन हम फिर भी जीते हैं इस आशा में की घांस काटी जाएगी और हम सही मार्ग, साही रास्ता देख पाएंगे। उल्लेखनीय है की बाबरी के विध्वंस के एक वर्ष बाद ही महंत लाल दास की हत्या कर दी गई थी। याद आता है पत्रकार रवीश कुमार की किताब "फ्री वौइस्" का जुमला की "टू बी अफ्रेड इस टू भी सिविलाइज्ड इन दिस न्यू डेमोक्रेसी"

निर्देशक ने फिल्म में बड़े-बड़े नेताओं की तकरीरों को जस का तस लोगों के सामने पेश किया है। आन्दोलन के दौरान समाज के शोषित और गरीब वर्ग की प्रतिक्रियाओं को भी दर्शकों के सामने लाया गया है। इस फिल्म को देखने की सलाह देते हुए रथ यात्रा के दौरान प्रचलित हुए नारों को कुछ बदलाव के साथ यहाँ लिख रहा हूँ।

सौगंध राम की खाते हैं, भारत को एक बनाएँगे। 
अल्लाह की कसम भी खाते हैं, भारत को एक बनाएँगे।। 
गॉड प्रॉमिस वाहे गुरु, भारत को एक बनाएँगे। 
समझेंगे और समझाएँगे, भारत को एक बनाएँगे।।

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