घर वालों से पूछ रहे हो, के घर कैसा लगता है?
क्या मछली से पूछा जाता है, समंदर कैसा लगता है?
गलियों के भीतर हैं गलियां, सत्ता के गलियारों में,
अंदर वाले ही बतलायें अंदर कैसा लगता है?
एक झूठे का सच जाना, तो दूजे को वोट दिया,
बेबस सा लाचार कसम से! वोटर कैसा लगता है।।
यहाँ हवा है जंजीरों में, कैद हैं सारी खुशबुएँ।
हरा-भरा गर ये जंगल है तो बंजर कैसा लगता है।।
ज़रखेज़ ज़मीं का फ़ूल क्या जाने बियाबान की तकलीफें।
मुरझाने पर ही जान सकेगा, मुरझाकर कैसा लगता है।।
सबकुछ ही हमने गँवा दिया, सबकुछ पाने की हसरत में।
कुछ हासिल होता तो बतलाते पाकर कैसा लगता है।।
बरहना है देश कहा है, कह देने से क्या होगा।
एक रिदा ओढ़ाकर देखो, ओढ़ाकर कैसा लगता है।।
माँ की कोख से जुदा हुआ हर बच्चा क्यों रोता है।
हर बच्चे को पता है शायद, बाहर कैसा लगता है।।
उल्फ़त से मरहूम रहे तो, दिल फिर दिल, नहीं रहता।
मुस्तक़िल सा काला-काला पत्थर कैसा लगता है?
उस रंग-साज़ के शाहकार को हम लोगों ने मार दिया।
इंसानों की मौत का यारों मंन्ज़र कैसा लगता है?
Keep Visiting!
No comments:
Post a Comment