Sunday, 3 June 2018

कविता | पलाश तिवारी।


कुछ पुरानी बात है। "कुछ" से यह स्पष्ट है की यह बात कोई ज़्यादा पुरानी नहीं है। यह वो वक़्त था जब ओपन माइक नाम की एक बेहद प्रचलित प्रक्रिया इंदौर शहर में अपने पाँव जमा रही थी। मैं स्वयं कम से कम ऐसी बीस महफिलों में शरीक हो चुका था और इक्कीसवी के लिए नगर के एक निजी कैफे में पहुंचा था। अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए मैं मुसलसल उन अदीबों, शोरा और कवियों को सुन रहा था जिनका नम्बर मुझसे पहले था। इस ही फेहरिस्त में एक नाम था "पलाश", "पलाश तिवारी" पेशे से इंजिनियर और दिल ओ जान से एक कवि। एक कवि जिसकी कलम व्यंग्य करती है, एक कवि जिसकी कलम कटाक्ष करती है और वह भी डंके की चोट पर। पलाश की कई मक़बूल कविताओं में से एक जिसे मैं यहाँ आपकी खिदमत में पेश करने जा रहा हूँ वह ना-दीद या पोशीदा नहीं है। इस कविता के मानी एकदम स्पष्ट और सहल हैं। पाठक को गोल-गोल ना घुमाकर मुद्दे की बात करना ही पलाश की खासियत है और उसी खासियत की एक नुमाइश है उसकी लिखी यह नज़्म -

"पहले मंदिर बनाते हैं"




छिड़ चुकी एक जंग है,
गूंज उठे मृदंग है,
जो दिख रहा है नालियों में,
वो रक्त का ही रंग है...

हैवानियत मलंग है,
इंसानियत अपंग है,

आओ आफत के गिर हटाते हैं,
आं.. आं... पहले मंदिर बनाते है। (1)

ये कायरो की गर्जन है,
वो पद्मावती की गर्दन है,
ये कौन-सी सेना है, जिसके सामने,
सरकारें भी निर्धन हैं...

अभिव्यक्ति तार-तार है,
असहिष्णुता के आसार है,

उन्हें एक सबक फिर सिखलाते हैं,
आं... आं... पहले मन्दिर बनाते हैं।

मरीज़ों का सराय है,
धधक रहा एम. वाय. है,
एक गुड़िया आग मे जल गई,
कुछ बच्चे खुदा ने बचाए है...

प्रशासन की ये मात है,
फूट पड़े जज़्बात है,

चलो सजदे में सिर झुकते हैं,
आं...आं... पहले मंदिर बनाते हैं। (3)

समुद्र को कहते फीका है,
उनके मज़ाक का तरीका है,
सड़के गड्ढों में धसी है,
लेकिन M.P. बना अमरीका है...

अट-पटे से काम काज है,
क्या यही शिव का राज है,

एक लोकतंत्र स्थिर सजाते हैं,
आं... आं... पहले मंदिर बनाते हैं। (4)

अपराध की ये रस्म है,
इश्क़ के बदले जिस्म है,
रेप होते है तो होने दो,
भाड़ में गया feminism है...

ना रुकी आँसुओ की धारा है,
महिलाओं का कुनबा बेचारा है,

अर्रे वो मर्द नहीं, क़ाफ़िर कहलाते है...
आं... आं... पहले मंदिर बनाते हैं। (5)

बेवफ़ाई की खुराक है,
तलाक़-तलाक़-तलाक़ है,
कहीं रो रही है फ़ातिमा,
कहीं पिट रहा अख़लाक़ है...

उस औरत के दो बच्चे हैं,
क्या रिश्तों के धागे इतने कच्चे है...

फरिश्ते भी हार, आखिर जाते है,
आं... आं... पहले मंदिर बनाते हैं... 
पहले मंदिर बनाते हैं।। (6)

साभार - बी.बी.सी हिंदी
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