Friday, 15 June 2018

नदामत हमारी।



है दोस्तों से उतनी रफ़ाक़त हमारी।

गनीम से है जितनी अदावत हमारी।।



बातों से अपनी मुकरने लगे हैं।

क्या कर दी है लोगों ने हालत हमारी।।



हासिल हो जाती मुहब्बत भी लेकिन,

तय ही नहीं हो पाई चाहत हमारी।।



भड़काने पर हमको क्यूँ लोग तुले हैं,

क्यूँ रास नहीं आती शराफ़त हमारी।।



है जिनको गवारा ख़ुशामद उन्हीं को,

ना-गवारा है गुज़री बगावत हमारी।।



हम मुंसिफ़, वक़ील ओ हम ही गवाह भी।

हम पर फ़ैसला सुनाएगी, अदालत हमारी।।



आप ना-ख़ुदा, कश्ती अपनी सम्भालें।

नाव हम रखेंगे सलामत हमारी।।



हम मरकज़ पर बैठें और फिर ये सोचें,

किस जानिब से आएगी, क़यामत हमारी।।



हुआ "प्रार्थना" पर उर्दू का असर यूँ,

वो कहलाती है आजकल "इबादत" हमारी।।



उनके निकाह की रोज़ कसम से!

मार देगी हमको नदामत हमारी।।



देखकर हवा बुदबुदाया परिंदा,

करेंगे कफ़स ही हिफ़ाज़त हमारी।।


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