हम अल-सुबह चिड़ियाघर के लिये निकले। इस "हम" में मैं और मेरे भाई आ जाते हैं। हमने साथ वक़्त बिताने का प्लान बनाया था और इसलिए सब के सब एक साथ चिड़ियाघर जा रहे थे।
मई की गर्मी में बारह के बाद का सूरज वह सूरज नहीं रह जाता जिसका ज़िक्र शायर अपनी शायरी और कवि अपनी कविता में करते हैं। इसलिए हम तड़के छह बजे घर से निकल गए। इलाक़े की सोती हुई सड़कों से होते हुए हम बीच शहर की उबासी लेती सड़कों तक पहुंचे।
सुबह का वक़्त और ऊपर से रविवार, लोगों की संख्या ना के बराबर थी। यह एक सुखद अनुभव था क्योंकि भारत के बड़े शहरों में नितांत खाली सड़क का मिलना राजनीति में ईमानदार नेता मिलने जैसा है।
चिड़ियाघर का रास्ता शहर के बाहर पहाड़ों से होकर गुज़रता था और इसके एक तरफ एक महदूद तालाब था। यह तालाब शहर का सबसे बड़ा जलाशय था और इसलिए बहुत विचार करने के बाद इसका नाम "बड़ा-तालाब" रखा गया था। नगर में मौजूद दूसरा तालाब जो "बड़े तालाब" से छोटा है "छोटा तालाब" कहलाता है। रचनात्मकता का स्तर सराहनीय है।
अलसाय पहाड़ों की नींद अब तक नहीं खुली थी और शौख-मिज़ाज हवाएं उन्हें उठाने के प्रयास कर रहीं थीं। हवा ठंडी रही होगी ऐसा मेरा अनुमान है क्योंकि जिस हवा को मैं महसूस कर पा रहा था वह कार के ऐ.सी की थी। कोई भी कवि परिवार के सामने अपना कवि होना उजागर नहीं करना चाहेगा।
नज़ारे टटोलते और लता ताई के गीत सुनते-सुनते हम अपनी मंज़िल के जानीब चले जा रहे थे। "रस्म-ए-उल्फ़त को निभाएं तो निभाएं कैसे" गीत सफर के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा था कि अचानक एक ट्रैफिक हवलदार ने हमारा रास्ता रोक दिया। गाड़ी रुक गई, और गीत भी।
"यह रास्ता बंद है, दूसरे से जाइये" उसने अपने हाथ में रखा डंडा घुमाया।
"मगर क्यों?" मेरे बड़े भाई ने पूछा, यह ड्राइवर भी था।
इस सवाल पर हवलदार से डंडा नीचे किया और आँखें घुमाईं। घूमती आँखों के साथ ही हमारे ड्राइवर ने कार घुमा ली। हम दूसरे रास्ते की ओर हो लिए।
"इनसे लड़ने का कोई फायदा नहीं" भाई ने खुद को जस्टिफाय किया।
"उसका डंडा घुमाना शायद तुम्हे पसन्द नहीं आया" मैंने कहा।
"अब तुम दिमाग मत घुमाओ यार" उसने गाड़ी की स्पीड बढ़ा दी। वह स्पीड-ब्रेकर्स को नज़र-अंदाज़ करने लगा। तेश में अक्सर हम ऐसा करता हैं।
"ज़ू" तक पहुंचने वाले इस दूसरे रास्ते पर एक के बाद एक तीन संग्रहालय पड़ते थे। भारत के पर्यटन स्थलों में मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारों के बाद संग्रहालय ही आते हैं। शहर के बड़े मॉल भी अब इस फ़ेहरिस्त में आने लगे हैं।
"म्यूज़ियम ही चल दो" छोटे भाई ने अपनी रज़ा बताई।
"ये तो मैं देख चुका हूँ" एक अन्य भाई ने मुँह टेढ़ा किया।
"अबे! सारा एक्साइटमेंट ही खत्म कर देते हो यार" बड़े भाई ने गाड़ी रोक दी।
सब चुप हो गए। सबकी ज़ुबान अपने होंठ सहलाने लगी। गाड़ी के सभी कांच खोल दिए गए और हवा भीतर आने-जाने लगी। सुदूर इलाकों में जब कोई बात नहीं करता तो पक्षियों का स्वर सुनाई देने लगता है। हमारे साथ भी यही हुआ।
"मैं इसके खुलने का वक़्त पूछ कर आता हूँ" मैं कार से उतरकर म्यूज़ियम की ओर चल पड़ा। पता चला की वह ग्यारह बजे खुलेगा। आगे के दो संग्रहालयों में भी यही जानकारी हासिल हुई। निराश हो कर हम चिड़ियाघर पहुंचने वाले दूसरे रास्ते पर आगे बढ़ने लगे। साढ़े आठ बज चुके थे। हम ढाई घण्टों से सड़क पर थे। साथ में।
"कहाँ?" एक दूसरे ट्रैफिक हवलदार ने हमारा रास्ता रोक लिया।
"ज़ू" मैंने कहा।
"ये रास्ता ग्यारह बजे खुलेगा" उसने कहा।
जवाब सुनते ही भाई ने माथा पकड़ लिया। उसने गाड़ी शहर की तरफ मोड़ ली। इस बार उसने "क्यों" नहीं पूछा।
हम लगभग साढ़े नो बजे वापस वहीँ आ गए जहाँ से चले थे। सब के सब बे-ज़ार पड़े थे। अपनी सीट से चिपके हुए एकदम त्रस्त।
"किसी को भूख लगी है?" बड़े भाई ने पूछा।
सबने उसकी तरफ देखा। बिना कुछ कहे।
कार दस मिनिट में "अग्रवाल नाश्ता शॉप" के सामने थी। इस देश में यदि अग्रवाल ना होते तो शायद लोग कभी नाश्ता ही नहीं कर पाते।
भरपेट नाश्ते के बाद हम चाय पीने लगे।
"कोई फिल्म ही चल दो" मैंने चाय का कप उठाते हुए कहा।
"कितने बजे का शो है" बड़े भाई ने पूछा।
"ग्यारह बजे का" सब हँस पड़े। "सारे दरवाज़े बंद हो जाने पर भी सिनेमा का दरवाज़ा खुला रहता है" मैंने सोचा।
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