आज वो बहुत याद आ रही है।
पास है ही नहीं और दूर जा रही है।।
हम उसे रोज़ तकते हैं और वो,
कम्भख्त! हमे रोज़ ठुकरा रही है।।
हैं शिकस्त चाँद-ओ-महर जिसकी नुमूद से।
है लाज़िम के इतराए वो, इतरा रही है।।
रहमत थी उसकी, बिन कहे आई थी।
तग़ाफ़ुल है उसका, बिन कहे जा रही है।।
कभी इज़्ज़त से हमने माँ की नहीँ सुनी।
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