Friday, 20 April 2018

धूप



अपनी मंज़िल की जानिब जाते हुए।
या फ़िर के लौट कर आते हुए। 
मैं बस में बैठ जाता हूँ,
सटकर दरीचे से।

शुआएँ शम्स से आ कर,
दरीचे से होते हुए,
झाँघ के बीच आती हैं,
वहीँ क़याम करती हैं।।

गोद में धूप को देखूँ,
तो लगता है के जैसे एक,
सुनहरी ताल है जिसमें,
नज़र में अक्स नहीं आते।।

काश के धूप होती आब,
तो उसको ओख में लेकर,
ज़ुबाँ से ज़ायका लेता और,
करता गरारे फ़िर।।

घुटक जाता धूप को मैं,
के जैसे आब घुटकते हैं।
के बहुत तारीक है अंदर,
मुझे दरकार रौशनी है।।

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