Tuesday, 17 April 2018

इज़हार के बाद।


Flower Is Used As A Metaphor Here🌸


एक फ़ूल किसी फिरदौस का,
जो अज़ीज़ है मुझे।
वो गुल किसी गुलज़ार का,
दिलकश बहुत है सच!

रोज़ मिलता था मैं उससे,
आदत थी मेरी। 
वो भी मिलता, आदाब कहता,
मामूल था उसका। 

दूर से ही देख उसकी,
खुशबुएँ लेता। 
वल्लाह! कभी छुआ नहीं और,
और ना कभी रज़ा रखी।

उस फ़ूल का क्या हाल बयाँ,
एजाज़ है वो एक। 
रंग बदलता है वो रोज़,
लिबास की मानिंद।

हर रंग उसपर जंचता है,
झूट है एकदम,
उससे है हर रंग खूबसूरत,
ये सदाकत है।

जब कभी देता सदा वो,
मैं हड़बड़ा जाता। 
देखूं उसे,  कह दूँ क्या कुछ,
या बस बैठा रहूं। 

कमरे में अपने बैठ तन्हा,
लिखता हूँ नज़्में खूब पर,
पर मुक़ाबिल रहता हूँ मौन,
लफ्ज़ गील जाता हूँ। 

कभी-कभी हिम्मत जुटाकर,
उसके बगल में बैठ जाता।
बैठ सुनता बातें उसकी,
तफ्सील उसकी, तफ़्सीर उसकी। 

फिर, मगर, लेकिन आ जाते,
कुछ भँवरे और कुछ तितलियाँ,
मैं लौट जाता क्योंकि मुझको,
ये ख़लल बर्दाश्त नहीं। 

फ़ूल को मैं चाहता हूँ,
है फिरदौस में सरगोशियां,
सब परिंदे और दरख़्त सब,
हैं जानते सच्चाइयां। 

एक रोज़ मैंने फ़ूल के,
कानों में कुछ एक लफ्ज़ कहे। 
सुनकर वो पहले तो हँसा,
और फिर चुप हो गया।

आज भी मिलता है मुझसे,
मुस्कुराता है। 
आजकल पर फ़ूल मुझसे,
बात नहीं करता...

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