अप्रैल का वो रोज़ और,
गर्मियों के दिन...
तपती धरती,
प्यासे परिंदे,
और,
शजर सब सुस्त।
गर्म हवा,
जलती फ़ज़ा और,
आबजू सब शांत।
आबशार,
सो रहा,
कोहसार संग,
है चुप!
सूखे बदर,
बे-रंग अर्श,
और,
शम्स,
एकदम मस्त...
आसमाँ को,
सब ज़मीं से,
ताकते हैं,
सोचकर,
के बदलेगा कब,
ये मौसम?,
और,
बदलेगी कब,
फ़िज़ा, फ़ज़ा?
इस सोच में ही,
मैं महव था,
के अचानक,
कुछ हुआ।
तुम आई और,
गर्दन झुका कर,
मेरे बगल से यूँ गईं,
लगा के जैसे,
बरखा गुज़र गई,
अप्रैल के महीने में...
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