बीती रात तमाम, इज़्तिराब में कटी।
इंतिज़ार-ए-मुहीब-ए-ख़्वाब में कटी।।
इक शब जो पूछा खुद ही से सवाल।
कई शामें मुसलसल जवाब में कटी।।
समंदर की बातें कर रहे हैं वो,
जीस्त जिनकी मुख़्तसर तालाब में कटी।।
ताउम्र करेंगे हम मय से परहेज़।
उन्हें जानते हैं, जिनकी शराब में कटी।।
पांच साल रहे बस सियासत में वो,
और उम्र सारी उनकी हिसाब में कटी।।
सुबह को तो बच गए मसाइब से हम।
शब मगर यकसर अज़ाब में कटी।।
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