Saturday, 24 March 2018

रसोई।



"अब रात को आसमान में बहुत देर तक ताकने पर भी तारे नज़र नहीं आते। उन्हें खोजना पड़ता है। घर की छत के जिस कोने में खड़े रहकर मैं तारे गिना करता था अब वहाँ खामोशी रहती है। तारों की गिनती का शोर अब सुनाई नहीं पड़ता। सोने, सो कर उठने फ़िर चलने और आखिर में थककर दोबारा सो जाने की इस प्रक्रिया में कभी-कबार सोचता हूँ की जीवन से "दौड़ना" , "भागना" और इसके बाद का "हांफना" जैसे कहीं गायब हो गया हो। बचपन में कितना दौड़ा करता था। स्कूल तक पहुंचने के लिए, कोचिंग में लेट ना होने के लिए, पकड़म-पकड़ाई में पकड़े ना जाने के लिए, फुटबॉल में गोल दागने के लिए, क्रिकेट में रन हासिल करने के लिए और माँ के चाटे से बचने के लिए। जब यह सोचता हूँ की आखिरी बार कब कोई काम बे-वजह, बे-सबब किया था तो कई रोज़ इस विचार में ही निकल जाते हैं। अपने हाफ़िज़ा की तह तक जाने पर भी ऐसा कोई अमल हाथ नहीं लगता। इस तलाश के बीच में मैंने "बचपन" को बड़ी उमीदों से खंगाला। मुझे लगा की यहाँ तो ज़रूर कोई ऐसा काम मिलेगा जो मैंने बे-सबब किया होगा। कुछ मिले भी मगर मंथन करने पर मालूम हुआ के वे सब भी किसी ना किसी कारण से ही किये गए थे। जैसे की मैं नदी को इसलिए ताकता रहता था क्योंकि मैं उससे डरता था। जब उसमे उतरा तो तैरना सीखने के उद्देश्य से। दोस्त बनाए मदद के लिए, पढ़ाई की नंबर के लिए, गाने गाए संगीत के शिक्षक को खुश करने के लिए, कविताएं याद की अध्यापक को प्रभावित करने के लिए। अकारण कुछ होता ही नहीं है और ना कभी होगा। एवरीथिंग हैज़ ए प्राइज। सबकुछ तय है। जन्म तय। मृत्यु तय। जन्म और मृत्यु के बीच की अवधि तय अर्थात जीवन तय। कुछ चीज़ें, कुछ बातें हम नहीं चाहते के हमसे रुख़्सत हों। तारे दिखते रहें, दौड़ना जारी रहे, कोई काम तो बे-सबब हो आदि।" इन विचारों की उहापोह में डूबा हुआ मैं बस के बाहर दौड़ रहे पेड़ों को बड़ी गौर से देख रहा था। एकाएक एक पेड़ के अचानक रुक जाने से मैं ठिठक गया और ठीक उसी वक़्त मेरे ज़हन ने मुझे विचारों की दरया से बाहर निकाल कर ऊपर पटक दिया। मैं होश में आ गया। बगल मुड़ा तो देखा की बस के सभी यात्री अपना-अपना सामान निकाल रहे हैं। बस रुक गई थी और सभी नीचे उतर रहे थे।

"क्या हम पहुँच गए हैं?" मैंने कंडक्टर से पूछा।

"हाँ" उसने आगे बड़ते हुए कहा।

मैंने भी अपना बैग उठाया और बस से नीचे उतर आया। सामने ही अद्वैत खड़ा था। सफेद शर्ट, काली पेंट, बड़ी हुई दाढ़ी और रजवाड़ों की मानिंद मूछ। वह एक घण्टे से बस-स्टेंड पर मेरा इंतज़ार कर रहा था।

"आ गए हो" उसने कहा।

"पूछ रहा की बता रहा" मैंने कहा। मैं थक चुका था। सफ़र हमे थका देते हैं, चाहे फिर हम उन्हें चल कर तय करें या बैठ कर।

"ओला कर लें?" उसने मेरा सवाल स्किप करते हुए पूछा।

"कितना किलोमीटर है?"  मैंने पूछा।

"क्या?, अरुण का फ्लैट?, 3-4 होगा यहाँ से" उसने अनुमान लगाया।

"तो करले, 30 रूपए में पहुँच जाएंगे" मैंने अपने बैग ज़मीन पर रख दिया।

"करता हूँ" उसने कहा।

अद्वैत ओला बुक करने में व्यस्त हो गया। कुछ देर खड़े रहने पर मुझे मूत लग आया सो में पास के शौचालय में मूतने चला गया। जब लौटा तो ओला सामने थी और अद्वैत भीतर बैठा हुआ था।

"ओय! इधर" उसने हाथ दिखाया।

कुछ ही देर में हम अरुण के फ्लैट पर पहुँच गए।

"आ गए हो" अरुण ने दरवाजा खोला।

"पूछ रहा की बता रहा" अद्वैत और मैंने एक स्वर में कहा।

"हाथ-मुँह धोलो, मैं चाय बनाता हूँ, बैठकर बात करते हैं" अरुण ने हमारा सवाल स्किप करते हुए कहा।

हम दोनों एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। हमने हाथ-मुँह धोया, कपड़े  बदले और सोफ़े पर जाकर बैठ गए। चंद सेकेण्ड बाद हम फिर उठे और अपने-अपने फ़ोन चार्जिंग पर लगाए। खुद का तन-मन भले ही डिस्चार्ज हो, फोन की बैट्री हमेशा फुल रहनी चाहिए। फोन अब हमारी देह का एक हिस्सा है जैसे नाक, कान आदि। इतने में अरुण ने चाय बना ली।

"तो कब चलना है?" अरुण ने चाय रखते हुए कहा।

"कल, झेलम एक्सप्रेस से।" अद्वैत ने अपने मोबाइल में मौजूद रेज़र्वेशन टिकट हमे दिखाई।

"कितने बजे है?" मैंने पूछा

"9:45" उसने कहा।

"भाई रसोई है, भंडारा नहीं है। इतना सुबह जा कर क्या करेंगे?" अरुण ने जम्हाई ली।

"फिर उसके बाद ट्रेन नहीं मिलेगी" अद्वैत ने कहा।

"मैं देख लेता हूँ और कोई ट्रैन" मैंने कहा।

"मगर रेज़र्वेशन हो गया है, अब केंसल करेंगे तो री-फंड भी नहीं मिलेगा" अद्वैत ने स्थिति स्पष्ट की।

"कल 9:45 फाइनल" मैंने कहा। अरुण ने भी हामी भर दी। हम चाय पी कर फ्लेट की छत पर चले गए और बातें चटकाने लगे।

लगभग 10-12 दिन पहले ही अद्वैत ने मुझे फोन लगाया था।

"कहाँ है" उसने पूछा।

"कॉलेज में" मैंने कहा।

"राघवेंद्र है ना अपना" उसने कहा।

"नहीं वो नहीं है यहाँ" मैंने संदेह से कहा।

"अबे! चूतिये, अपना राघवेंद्र है ना उसके दादा जी नहीं रहे। आज सुबह ही खबर आई है" उसने चिढ़ते हुए कहा।

"अच्छा! अब क्या करना है" मैंने पूछा।

"चलना है" उसने कहा।

"पूछ रहा की बता रहा" मैंने कहा।

"रसोई में चलना है, तू आ जाना 20 तारीख तक" अद्वैत ने सवाल स्किप करते हुए कहा।

"ठीक है" मैंने फोन रख दिया। 

जब हमे कोई चीज़, कोई बात, कोई घटना परेशान करती है तो हमारे संवाद छोटे हो जाते हैं। हम बातचीत में कम शब्दों का इस्तमाल करते हैं। कवि हमेशा परेशान रहते होंगे। शायद! राघवेंद्र मुनीर अरुण और अद्वैत के बाद मेरा तीसरा सबसे जिगरी यार है। उसके दादाजी, जो की पूर्व जिला न्यायाधीश थे का केस ईश्वर की अदालत में पूरा हो चुका था। और अब हमे उनकी रसोई में जाना था। अद्वैत के कहे वक़्त पर मैं उसके और अरुण के पास पहुँच गया था। हम तीनों जाने के लिए तैयार थे। 9:45 को भोपाल जंगशन से हमारी ट्रेन थी जो हमे विदिशा तक लेकर जाने वाली थी।

आधे घण्टे के इंतज़ार के बाद हमारी ट्रेन यानी झेलम एक्सप्रेस स्टेशन पर आ कर खड़ी हो गई। ट्रेन के आते ही प्लेटफार्म पर खड़ी तमाम जनता भागने लगी। इधर-उधर, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे। मगर हम तीनों आराम से एस-थ्री डब्बे की ओर बढ़ रहे थे। हमारी सीट तय थी। हम रेज़र्वेशन करा के बैठे थे। जीवन में वे लोग हमेशा आराम से आगे बढ़ते हैं जिन्हें अपना लक्ष्य, अपनी मंज़िल पता होती है। बाकी सब ऐसे ही दौड़ते-भागते रहते हैं और इसी भाग-दौड़ में ना-जाने कितने कुचले जाते हैं।

हमारा सफर ढाई घण्टे का था। यह कोई लम्बा सफ़र नहीं था मगर कम्फर्ट ज़रूरी था इसलिए दो दिन पूर्व ही अद्वैत ने रेज़र्वेशन करवा लिया था। अद्वैत ऐसा ही है उसके लिए अपना स्वस्थ, अपना शरीर, अपनी शक्ल, अपना कंफर्ट पहले आता है। खर्चे की टेंशन वह कभी नहीं लेता। अद्वैत वैसा है जैसा मेरे माता-पिता मुझे देखना चाहते हैं। मैं जैसा हूँ वैसा किसके माँ-बाप चाहते होंगे?, विचारनीय है। जब हम अपनी सीट पर पहुँचे तो देखा की वहां पहले से ही तथा-कथित अप-डाउनर्स बैठे हुए हैं।

"ये हमारी सीट हैं" मैंने कहा।

"कौन-कौन सी?" गुलाबी शर्ट पहने एक अंकल ने हमारी ओर आँखें गड़ाते हुए कहा।

"58, 59, 60" अद्वैत ने टिकट दिखाते हुए कहा।

टिकट देखते ही अंकल ठंडे पड़ गए।

"आओ, आओ बैठी बेटे" वे मुस्कुराए। जीवन में प्रमाण कितने ज़रूरी हैं यह मैंने उस दिन जाना। कुछ-कुछ किस्सों में तो व्यक्ति को अपने जीवित होने का या फिर अपने बाप की मृत्यु का भी प्रमाण देना पड़ा है। यहाँ तो प्रत्यक्ष को भी प्रमाण की दरकार है।

अपनी-अपनी सीट पर बैठ जाने के बाद हम तीनों एकदम चुप हो गए। लगभग सारी बातें प्लेटफार्म पर ट्रेन का इंतिज़ार करते हुए ही खत्म हो गई थीं और नई बातें ईजाद करने के मूड में कोई नहीं था। मेरे बैग में उस समय कोई किताब नहीं थी इस बात पर मैं बहुत शर्मिंदा था। ख़ुद को लेखक कहने से मैं हमेशा कतराया हूँ मगर मैं एक पाठक हूँ इस बात पर मैंने हमेशा गर्व किया है। उस रोज़ उस गर्व की धज्जियाँ उड़ती नज़र आ रही थी। अरुण और अद्वैत से किताब की उम्मीद की नहीं जा सकती थी। इसका एक ही कारण था और वो यह के मैं उन्हें पिछले 10 साल से जानता हूँ।

"गाने सुन लेता हूँ" अरुण ने अपने इयरफोन्स लगा लिये।

"मैं भी सुन ही लेता हूँ" अद्वैत ने कहा।

मैं बहुत देर तक उन दोनों को देखता रहा फिर बाहर देखने लगा। बाहर देखते-देखते मैं अपने पैरों को ऊपरसीट पर समेटना लगा। मुझे ऐसा करता देख गुलाबी शर्ट वाले अंकल भड़क गए।

"एक तो जगह नहीं है, ऊपर से अब तुम ऐसे बैठोगे तो कैसे चलेगा?" वो बोले

"पर अंकल"

"अरे! नई तुम युवा हो, यंग हो, नई जनरेशन के हो, समझना चाहिए तुम्हें" उन्होंने युवा लफ्ज़ के सारे पर्यायवाची उगल दिए।

"अरे! लेकिन"

"अब देखो ज़ुबान भी लड़ा रहे हो। चुपचाप पैर नीचे करो" उन्होंने मुझे ऊँगली दिखाई।

ऊँगली तोड़ देने का मन किया मगर फिर मेरे आदर्श, मेरे संस्कार, मेरे माता-पिता की तस्वीर लेकर मेरे सामने आ खड़े हुए। मैंने अपने पैर नीचे किये और मुँह फुला कर बैठ गया। पूरे घटनाक्रम के 10 मिनिट बाद अरुण ने अपने इयरफोन निकाले और मेरी तरफ मुँह मोड़ा।

"कुछ हुआ क्या?" उसने पूछा।

मैंने उसे गुस्से से देखा। "अब क्या फायदा" मैंने मन में कहा।

"अरे! तो भैया बता तो" वो अपने दांत दिखाने लगा।

मैंने कुछ नहीं कहा। उसने कुछ देर बाद फिर ईयरफोन्स लगा लिए।

ट्रेन लगातार चल रही थी, सब सिग्नल क्लियर मिल रहे थे। अब हम अपने गंतव्य से बस आधे घण्टे दूर थे। मेरी नज़र लगातार उन अंकल पर थी। उन्हें मुक्का मारने का मन कर रहा था। तहज़ीब बड़ी बुरी चीज़ है। सच कहता हूँ।

"हाँ आपका बताइये" टीसी ने बर्थ के आखिर में बैठी अंटी से पूछा।

"एम्.एस. टी" अंटी ने कहा।

"हाँ आपके बेटा?" टीसी ने मेरी तरफ रुख़ किया।

"अद्वैत, अरुण और प्रद्युम्न, अंकल। 58, 59, 60" मैंने बताया।

"हाँ आप का क्या है, भाईसाहब" अब सवाल गुलाबी शर्ट वाले अंकल के पास आया।

"एम. एस. टी" उन्होंने भी कहा।

"हाँ दिखाइए" टीसी ने पेन निकालते हुए कहा।

"क्या?" गुलाबी शर्ट का चेहरा पीला पड़ गया।

"एम. एस. टी, दिखाओ ना यार भैया जल्दी, आगे भी जाना है मुझे" टीसी ने रसीद-कार्ड भी निकाल लिए। ट्रेन में बैठे हर यात्री की नीयत उसके चेहरे से पढ़ लेना की कला लेवल एक रेलवे टीसी में ही पाई जाती है।

"आज ज़रा घर पर भूल गया मैं, सर" अंकल ने अपना बैग चेक करते हुए कहा।

"आइये याद दिलाते हैं" टीसी मुस्कुराया। और मैं भी, थोड़ा ज़्यादा।

"नहीं, नहीं, नहीं, ऐसा थोड़ी करना चाहिए अंकल। इतने बड़ी उम्र में विथआउट टिकट सफ़र करना। एकदम गलत है यह तो। यंग जनरेशन आपसे क्या सीखेगी बताइये" मैंने अपने गुस्से को शिष्टाचार के मोज़े में लपेटकर अपने व्यंग्य का जूता अंकल की ओर फेंका। एक आम यदि स्वयं अंदर से गला हुआ हो तो उसे कैरी को नसीहत नहीं देनी चाहिए।

"यहाँ अंकल चले और वहां ट्रेन रुक गई।" अरुण और अद्वैत बिना कुछ कहे ये तमाशा देख रहे थे।
हम तीनों ट्रैन से उतरकर ख़ूब हँसे।

"हाँ भाई पहुँच गए हैं हम" अद्वैत ने राघवेंद्र को फोन लगाया।

"हाँ किसी भी ऑटो वाले से "कबीर-मठ" का बोल देना, वो छोड़ देगा" राघवेंद्र की आवाज़ फ़ोन के बाहर तक सुनाई दे रही थी।

स्टेशन के बाहर ऑटो वालों की लाइन लगी हुई थी। सब एक ही तरह का डायलॉग बोल रहे थे - "हाँ!ऑटो", "ऑटो लगेगा भैया?", "कहाँ जाएंगे".....हमने उनमे से एक को चुन लिया। ठगने तो सब ही वाले थे, चुना लगना एकदम तय था। इसलिए चेहरे से जो सबसे कम मक्कार लगा हमने उसके ऑटो में बैठने का फैसला लिया और कबीर मठ की ओर चल पड़े। देश-विदेश की राजनीति को इससे बेहतर शायद ही कोई और उदाहरण समझा पाता।

कुछ ही मिनिट में हम कबीर मठ के बाहर थे। वहां पहुँचते ही हम तीनों राघवेंद्र को खोजने लगे। अरुण की आँखों ने सबसे पहले उसे खोज लिया। उसने भी हमे देख लिया। काली-घनी दाढ़ी, बढ़े हुए बाल और गले पर ठेकेदारों वाला गमछा बांधे राघवेंद्र हमारी तरफ आने लगा। ज़ाहिर है कि इतने दिन के काम-काज ने उसकी ऐसी हालत कर दी थी। वरना उससे ज़्यादा स्टैंडर्ड रहन-सहन हम में से किसी का नहीं है। मेरा तो कतई नहीं।

"आ गए", उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

"पूछ रहा की बता रहा" हमने एक स्वर में कहा।

"तुम बैठो, चाय-पानी पियो। मैं ज़रा व्यवस्था देख कर आता हूँ।" उसने हमारा सवाल स्किप करते हुए कहा। 
हम तीनों मुस्कुरा दिए। राघवेंद्र अपने काम में व्यस्त हो गया।

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