Friday, 2 March 2018

लिंक रोड।



एक लंबे अंतराल के बाद मैं घर आ गया था। फरवरी का अंत था और मार्च की शुरुआत हो चुकी थी। यह समय
लंबी थकान के बाद की उबासी का था। आजकल घर आना कुछ तय नहीं रहता। मुझे याद है जब मैंने घर छोड़ा
था मैं अक्सर वापस लौटने के ख़्वाबों में तय तारिख से कई रोज़ पहले अपनी ट्रेन का रिज़र्वेशन करवा लेता था। 
अब ऐसा नहीं होता, वक़्त के साथ घर का मोह कम होता चला जाता है और काम प्रायोरिटी पर आ जाता है। 

मेरे घर आने के कई कारणों में से मुख्य कारण “कुछ पल का सुकून” है। यहाँ आने पर महसूस होता है मानो बहुत सा बोझ हल्का हो गया है। जिम्मेदारियां और चिंताएं रास्ते में आई सुरंगों और नदियों में छूट गई हैं और घर पर मैं अकेला हूँ, एकदम मुक्त, स्वतंत्र। 

घर आ जाने पर मेरे सर से एक और बोझ हर बार हटा दिया जाता, मेरे बाल। माँ को बड़े बाल पसंद नहीं और  ना ही दाढ़ी-मूंछों से उन्हें कोई ख़ास लगाव है। घर की चौखट पर जूतों के उतरने के साथ ही वह कहती –

“जाके बाल कटवा आओ, कल सोमवार है, कल नहीं कटवाने दूंगी”

“कल सुबह जाता हूँ” मैं कहता और फिर एक सप्ताह तक उस सुबह के इन्तिज़ार में माँ और पिताजी के ताने सुनता। हर रात खाने पर माँ, पिता और मेरे बीच बालों के चर्चे होते और मैं हर बार अपनी तर्कशक्ति से उन्हें पराजित कर देता। हालाँकि इस जीत में किसी तरह की ख़ुशी नहीं होती क्योंकि मेरी जीत से विपक्ष हथियार उठाना नहीं छोड़ता उल्टा वह दुगनी शक्ति के साथ अगली रोज़ फिर मुकाबला करता। आख़िरकार एक दिन मैं हार जाता और वे दोनों चैन की सांस लेते। बहुत सारी जीत के बाद हम स्वाभाविक तौर पर पराजित हो जाते हैं। इसका कारण हमारी कमजोरी नहीं अलबत्ता विपक्ष की हिम्मत और लड़ने की असीमित क्षमता होती है।

दाढ़ी ट्रिम करवा लेने और बालों को किसी कटोरे की मानिंद कटवा लेने के बाद जब में घर आता तो मेरा स्वागत किसी नई नवेली दुल्हन की तरह किया जाता।

“अब देख, कितना सही लग रहा है” पिता जी चाय पीते हुए कहते।

“नज़र ना लग जाए किसी की” माँ मेलनकोलिक ड्रामा क्रिएट करती, वह इस काम में बेहद माहिर हैं, सारी माएं होती हैं। 

किसी रोज़ पिताजी को सही-गलत का फर्क मुझे ही समझाना पढ़ेगा और माँ को इस बात का इल्म करवाना होगा की इस तरह के बाल रहेंगे तो वैसे भी किसी की नज़र नहीं लगेगी खासकर के किसी लड़की की। लड़की की नज़र लगना या कम से कम पड़ना बेहद ज़रूरी है। 

खुद की ऐसी हालत बना लेने के बाद मैं अक्सर काफी देर तक आईने में देखता हूँ, इस उम्मीद में की दया 
खाकर आईना मुझे कुछ और दिखा दे मगर वह कर्तव्यनिष्ठ है और सच्चा भी। मेरी परेशानी देखकर कई बार वह रो भी पड़ा है। मैंने उसके आंसुओं से अपने पैरों को भीगते देखा है।आइना कमाल का शिक्षक है और एक समझदार दोस्त भी। 

मेरी इस हालत पर छोटा भाई अक्सर हँसता। वह मुझमे अपने हालात देख लिया करता था। 

“फिर बढ़ जाएँगे”  वह कहता। 

“क्या अनोखी बात कही है, मुझे नहीं पता था यह” मैं गुस्से से कहता और उसे चले जाने का इशारा दे देता। 

वो चिड़ने की जगह जोर से हंसकर निकल जाता। वह हंसोड़ है, चिंतामुक्त, एकदम चुस्त, मुझसे काफी अलग। हम भाई हैं, जुड़वा भाई नहीं। 

घर पर रहते हुए रोज़ मैं शाम का इंतज़ार करता. शाम छह बजे का. इस वक़्त के आसपास मैं अपने स्कूल के
दोस्तों से मिला करता. अरुण और अद्वैत. हम तीनो बेहद करीबी दोस्त हैं. अरुण हर शाम अपनी बाइक पर अद्वैत को लेकर आता और मेरे घर के सामने पहुँच कर आवाज़ लगाता-

“प्रद्युम्न....प्रद्युम्न” वह चिल्लाता।

“प्रद्युमन्न्न्न....” अद्वैत सुर में सुर मिलाता. उनकी इस पुकार में एक संगीत निहित रहता, मित्रता या दोस्ती का संगीत शायद. संगीत हर जगह विद्यमान है, हर सदा, हर पुकार में. ऐसा मेरा मानना है।

उनकी आवाज़ सुनते ही मैं सारे काम छोड़ देता, हालाँकि घर पर मुझे कोई काम होता ही नहीं है।

मैं दौड़कर बाहार जाता, चप्पल पहनता और सीढियाँ उतरकर बाइक पर सवार हो जाता। हम रोज़ शहर के बाहर मौजूद एक चाय की गुमठी पर जाया करते। यह सफ़र यहीं कोई चार-पांच किलोमीटर का होता था। दरअसल चाय तो शहर में कहीं भी मिल जाती मगर मकसद चाय नहीं उस तक पहुंचना का वह सफ़र होता था जिसके दौरान हम जमाने भर की बातें चटकाते थे सिवाए अपने फ्यूचर प्लान्स के क्योंकि उनकी चर्चे तो साल के ग्यारह महीने होते थे।

गुमठी पर जाने से पहले हम हमारे एक और दोस्त के यहाँ रुका करते थे, राघवेन्द्र मुनीर के यहाँ। राघवेन्द्र के पिता जी शहर के डिप्टी-कलेक्टर थे और उसके दादा पूर्व जिला-न्यायाधीश। मतलब एक ही घर में कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों मौजूद रहती थीं। क्या अद्भुत नज़ारा रहता होगा। 

हम उसके यहाँ जाते, कुछ देर बैठते और इधर-उधर की बातें करते। यहाँ हम भविष्य की चर्चा भी करते क्योंकि 
उसके पिता जी की नज़र हम पर लगातार बनी रहती थी। राघवेन्द्र हमारे साथ चाय पीने नहीं जाता. हम कहते की “चलो चाय पीकर आते हैं” तो वह कहता “रुक जाओ यहीं बनवा देते हैं” और अपने नौकर से कहता “सुखी, चार चाय जल्दी” हम हंसकर मना कर देते और गुमठी की ओर निकल पड़ते. ऐसा लगभग रोज़ ही होता था. कुछ बातों के नतीजे मालूम होने के बावजूद भी हम उन्हें बार-बार दोहराते हैं कि क्या पता कहीं नतीजे पलट जाएं।

राघवेन्द्र और हम गहरे दोस्त थे मगर हमारे कुछ रवैयों में फर्क था, एक कभी न मिटने वाला फर्क। हर शख्स के अपने कुछ पर्सनल रवैये होते हैं जिन्हें वह किसी भी हालत में बदलना नहीं चाहता और ना ही दूसरों के अपनाना चाहता है। बिलकुल कच्छों की तरह।  

गुमठी तक पहुँचने के लिए हमे लिंक-रोड से हो कर गुज़रना पड़ता था। शहर की गर्म हवाओं से रुखसत होकर हम राफ्ता-राफ्ता खेतों की ठंडी हवा की ओर बढ़ते चले जाते। सड़क पर चलते हुए एक जगह ऐसी आती जिसके एक तरफ गर्म हवा और एक तरफ ठंडी हवा होती थी। वह जगह शायद कुदरत और इंसान का मीटिंग-पॉइंट है। लिंक-रोड दरअसल वह रोड है जो दो महानगरों को आपस में जोड़ती है। यह बात मुझे टेकाम ने बताई थी। वह बड़ा जिज्ञासु है और एक लेखक भी। लेखक जिज्ञासु होते हैं, प्रमाणित होता है।

लिंक रोड के आखिर में वह गुमठी थी जहाँ जाकर हम चाय पिया करते थे। जब से मैंने होश संभाला है, चाय के रेट पांच रूपए ही हैं। चाय मेरे जीवन की तरह है शायद, इसके रेट कभी बढ़े ही नहीं। उस चाय वाले का नाम हम नहीं जानते, हमने कभी पूछा नहीं, कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। हम चाय लेकर पास बहती नहर के पास जा कर बैठ जाते और बस बैठे रहते। घंटों, एक जैसे। चाय की चुस्कियां लेते हुए, पानी की आवाज़ सुनते हुए। वहां पहुँच कर मुझे कभी नहीं लगा की इससे आगे जाना चाहिए। जीवन में कुछ जगहें ऐसी होती हैं जहाँ पर हम संतोष की अनुभूति करते हैं और “थोड़ा और”, “कुछ दूर और”, “बस वहां तक और” जैसी महत्वकांशाएं, हसरतें कुछ पल के लिए समाप्त हो जाती हैं।

“हम रोज़ ही यहाँ बैठते हैं” अरुण ने कहा।

“यू डिसकवर्ड इट मैन” अद्वैत ने चाय की चुस्की ली। मैं हँस पड़ा।

‘मेरा मतलब है हमे कहीं और बैठना नहीं चाहिए कभी-कभी” अरुण ने ज़ोर दिया।

“जैसे कि कहाँ” मैंने पूछा।

“वहां गुमठी के बगल में” अरुण ने गुमठी के बगल में मौजूद एक बंद ढाबे की और इशारा किया।

“वहां, मतलब वहां?, जहाँ हर आता-जाता हल्का होता है. मूत की बदबू से भरी हुई जगह पर बैठोगे तुम?” अद्वैत ज़ोर से हँस पड़ा।

“अरे! मतलब हम कह रहे हैं उसके बाहर, उसके सामने” अरुण खिसिया गया।

“किसी जगह के बहुत देर तक खाली या बंद पड़े रहने पर लोग वहां मूतने लग जाते हैं और फिर वहां से बदबू आने लगती है। तुम काफी दिनों से खाली बैठे हो ना अद्वैत? तुम्हारा दिमाग तो चालू है ना, देख लो कहीं कोई मूत ना जाए” मैंने अद्वैत पर करारा तंज कसते हुए अरुण को सपोर्ट किया। अरुण ठहाका लगाकर हंसने लगा और मैं भी हँस पड़ा।

“अकेला कर दिया ना भाई को” अद्वैत ने चाय के कप उठाते हुए कहा।

“बैठेंगे तो यहीं, वहां कुछ बैठने का इंतजाम भी नहीं है” उसने आगे कहा।

“तो हम बेंच लगवा लेंगे” मैंने कहा।

“वो कहाँ से आएगी” अरुण ने मुझे शक की निगाहों से देखा।

“मेरी पहली तनख्वा से” मैं मुस्कुरा दिया।

हम तीनो अपनी जगह से उठ गए और गुमठी वाले को पैसे देकर वापस बाइक पर जा बैठे। अरुण ने बाइक स्टार्ट की और लिंक रोड पर ले ली।

नहर की आवाज़ धीरे-धीरे कम होने लगी। कान से कुछ दूर होता हुआ महसूस हुआ। हम शहर की ओर बढ़ रहे थे, गर्म हवाओं की ओर। एकाएक हमारी नज़र गिरीश पर पढ़ी। वह अपनी बाइक से हमारी ओर ही चला आ रहा था उसके पीछे माखन और अर्जुन भी बैठे हुए थे, यह भी हमारे स्कूली दोस्त थे।

“कहाँ चली सवारी” अद्वैत ने पूछा।

“तुम जहाँ से लौट रहे हो, वहां” अर्जुन ने अपना मोबाइल अपनी जेब में डाल लिया।

हम सब मुस्कुरा दिए। दोनों गाड़ियाँ स्टार्ट हो गईं। एक किक अरुण ने मारी और दूसरी गिरीश ने। दो सफ़र शुरू हो गए थे।




उपरोक्त कहानी दिनांक 4 मार्च 2018 को भोपाल से प्रकाशित होने वाले अखबार में सुबह-सवेरे में प्रकाशित की गई।

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