घर से बहुत दूर आ जाने पर
हम बहुत धीरे उसे भूलने लगते हैं. हम भूलने लगते हैं सीढ़ियों की गिनती और दीवारों
का रंग, हम भूलने लगते हैं उसके आसपास लगे पेड़ों को और उस आसमान को जिसके नीचे घर
है, हम भूलने लगते हैं घर के सलीके, अमल और आदतें, हम भूलने लगते हैं रोज़ नहाना,
वक़्त पर खाना, हम भूलने लगते हैं पिता की नसीहत और माँ की समझाइश. मगर कुछ चीज़ें,
कुछ बातें भुलाई नहीं जातीं या शायद! भुलाई जा नहीं सकती. भावनाएं और विचार इन
चीज़ों में अव्वल हैं.
मैं अपने घर से दूर आ गया
हूँ, बहुत दूर नहीं मगर हाँ कुछ दूर. पिता जी रोज़ फ़ोन करके एक जैसे सवाल करते हैं –
“खाना खाया?”, “कॉलेज गए थे?”, “और क्या नया?” आदि. मुझे परिवर्तन पसंद है. एक
जैसी बातों से मैं अक्सर ऊब जाता हूँ और एक लम्बी ऊब झल्लाहट को जन्म देती है. माँ
फ़ोन पर बहुत कम आती है. उनके सवाल और माओं जैसे नहीं होते. मेरी माँ के सवालों में
परिवर्तन है या शायद वह इस हद तक क्रियेटिव हैं की वह एक ही तरह के सवाल को
अलग-अलग तरह से पेश कर पाती हैं. मैं लेखक हूँ, प्रमाणित होता है.
मैं अपने राइटिंग टेबल पर
बैठकर अपने लैपटॉप की बटनों को सहला रहा था. मैं कुछ लिखना चाह रहा था और इसलिए
मेरी उँगलियाँ अक्षर तलाश कर रही थीं. अचानक मेरी उँगलियाँ फोन के वाइब्रेशन के
कारण ठिठक गईं. वो पिता जी का फ़ोन था.
“कहाँ हो?” उन्होंने पूछा.
“रूम पर” मैंने जवाब दिया.
“कॉलेज?”, उन्होंने पूछा.
“रोज़ ही जाता हूँ”, मैंने कहा.
“खाना?”, उन्होंने पूछा.
“खा लिया है, आज छोले बने
थे, नमक कम था, रोटी ठंडी थी, उनमे घी नहीं था, दाल एकदम पतली थी और चावल सुबह के
थे”. मैं सवालों से ऊब चुका था और इतना बड़ा जवाब उसी का नतीजा था.
“गुस्से में है क्या, चिडता
क्यूँ है?, माँ विजयासेन का वो कड़ा जो मैंने तुझे पिछले साल दिलवाया था, वह कहाँ
है, उसे पहना कर चिडचिडापन कम होगा” उन्होंने मेरी नब्ज़ पकड़ ली.
“दिनभर काम रहता है और रात
को भी, दिन भी छोटा पड़ने लगा है अब तो, ऐसे में मैं क्या करूँ?, पढूं?, काम करूँ?
या आपसे बात करूँ?” मैंने दूर रखे कड़े की ओर नज़र गढाते हुए कहा.
“काम क्यूँ करना है?” पिता
जी का स्वर अब तक कोमल था. पिता जी अन्य पिताओं से अलग हैं, सबके होते हैं. बचपन
से आजतक मैं उनसे कभी नहीं डरा या यूँ कहूँ के उन्होंने मुझे कभी डराया ही नहीं.
परीक्षा में कम मार्क्स आने की खबर मैं माँ से पहले पिता जी को दिया करता था. कारण
था की पिता माँ को समझा दिया करते थे और मैं उनकी तीखी डांट से बच जाता था.
“पैसे कमाने के लिए” मैंने
उत्तर दिया.
“पैसे क्यूँ कमाने हैं” वे
हैरान हुए.
“खर्च करने के लिए” मैंने
कहा.
“क्या पैसा ही सबकुछ है और
परिवार कुछ नहीं?” उनकी बातों में संजीदगी आ गई थी.
मैं बहुत देर तक रुका रहा.
मैं हाँ में जवाब देना चाहता था मगर दे नहीं पा रहा था. बाहरी तजुर्बों ने मुझे
यही सिखाया था मगर ना जाने क्यूँ मैं पिता जी से कह नहीं पा रहा था.
“हेलो!, हेलो!” वे लगातार
बोल रहे थे.
“रहने दो ना, काट दो, जब
नहीं करनी उसे बात तो मत करने दो” माँ उन्हें समझा रही थी.
मैं अब तक रुका हुआ था,
शरीर फ़ोन पकड़कर खड़ा था मगर ज़हन मुझे कहीं ओर ले जा चुका था. यह बहुत पहले का वक़्त
था, शायद मैं दस साल का रहा होऊंगा जब पिता जी मुझे मेले में लेकर गए थे. झूला
झूलने, आइस-क्रीम, पाव-भाजी खाने और मैजिक शो देख लेने के बाद मैं पूरी तरह थक
चुका था और इसलिए पिता जी ने घर लौटने का फैसला कर लिया था. हम मेले के भीड़ भरे
कूचों से होते हुए बाहर की ओर निकल ही रहे थे की मेरी नज़र एक रिमोट कण्ट्रोल कार
पर पड़ी, हरी, चमकदार, रिमोट कण्ट्रोल कार पर. मैंने उसे पाने की इच्छा जाहिर की और
हम वह कार ले कर घर पहुंचे. दो दिनों के अन्दर मैंने उस कार के अस्ति-पंजर अलग कर
दिये और फिर एक ओर की चाहत में रोने-गाने लगा. अपनी ही गलती पर रोते रहना और
लगातार नए मौके तलाश करना इंसानी फितरत है.
पिता जी ने लगभग एक हफ्ते
बाद मुझे फिरसे एक रिमोट कण्ट्रोल कार ला कर दी, लाल, चटकदार, रिमोट-कण्ट्रोल कार.
माँ को यह पसंद नहीं था उनका मानना था की जिद कभी पूरी नहीं की जानी चाहिए क्योंकि
ज़िद का कोई अंत नहीं होता. माँ किसी फिलोसौफेर से कम नहीं होती, सत्य है!
“पिछले हफ्ते ही एक लाए थे
अब इस हफ्ते एक ओर मैं जानती हूँ इसे ये तो इसे भी तोड़ देगा, स्थिर चीज़ें इसी पसंद
ही नहीं, कितना पैसा खरचेंगे आप इसकी ज़िद पर” माँ ने पिता जी को समझाया. वह मुझे
कितना बेहतर जानती है.
“क्या पैसा ही सबकुछ है”
पिता जी ने सवाल किया.
“जब ये बड़ा हो जाएगा ना तब
इसी से पूछना” माँ ने मुझे गुस्से से देखा.
पिता जी मुझे देख मुस्कुराए
और कहा –
“पैसा बहुत कुछ है मगर
सबकुछ नहीं है, परिवार सबकुछ है, वह साथ होना चाहिए. जब कभी ऐसा सोचने में आए की तुम्हारे
पास दूसरों से कम पैसा है, बंगला नहीं है, गाडी नहीं है या जब कभी भी तुम असफल हो
तो बस एक लाइन दोहराना “जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये”
मैं चुप हो गया था, एकदम
चुप. पिता जी बहुत कुछ कह गए थे, मैं बहुत कुछ सुन चुका था.
“हेलो!, हेलो!” पिता जी की
आवाज़ तेज़ हो गई थी.
“पापा, मैं सुबह फ़ोन लगाता
हूँ” मैंने कहा. मेरा ज़हन शरीर में लौट आया था.
मैंने फ़ोन काट दिया और विजयासेन
माता का वह कड़ा पहनते हुए सोचा “पैसा सबकुछ नहीं होता”
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