Tuesday, 13 February 2018

पिसर।



कूचे-कूचे में ख़ौफ़ है, डर है पिसर।

मुश्क़िल बड़ी रहगुज़र है पिसर।।


उजालों में जलाने पड़ेंगे चराग़।

काली-अँधेरी सहर है पिसर।।


किस बात का जश्न है शहर में, बता?

हर सम्त क्यूँ बरपा कहर है पिसर।।


गुँचा डरता है बनने से फ़ूल यहाँ।

क्या आलम है, कैसा मंज़र है पिसर।।


एक आदमी मचाता था शोर बहुत। 

आजकल वो आदमी किधर है पिसर।।


है अज़ाब-ओ-मसाइब-ओ-रंज-ओ-सितम?

तू सफ़र है, ये रख्ते-सफ़र है पिसर।।


तेरी बातों पर नहीं है एतमाद मुझे।

तेरी बातों के आगे "मगर" है पिसर।।


हाँ कुछ तो ख़ता वालिद की भी है।

अब वो भी किसी का पिसर है पिसर।।


अब करते ही नहीं हम अपने में क़याम। 

है उनको भरम के अंदर है पिसर।।


ना आया है ज़द में, ना आएगा प्रद्युम्न।

क्या तुम्हे इस बात की खबर है पिसर।।


क्या अमरोहा, क्या कराँची, हालत-ए-हाल है ये।

हर दिल आजकल जौन का शहर है पिसर।।

Keep Visiting!

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