एक झंडा पन्नी का,
हल्का सा, चुटमुट सा,
वो टँगा है दुकान पर,
दिलवा दो ना बाबा!
हरा, सफ़ेद, नारंगी....
तीन-तीन पट्टी वाला....
वो और उसका वो नीला चक्का....
दिलवा दो ना बाबा!
"आज 5 रूपए का एक है सर,
कल जनवरी छब्बीस है, दस का मिलेगा",
दुकान वाले ने कहा-
बच्चे की ज़िद भी है,
दिलवा दो ना बाबा!
चल देदे 2-4,
ये ले बीस रूपए..
बच्चा ख़ुश, हम भी ख़ुश,
झंडा-वंडा क्या चीज़ है?
बाबा! बाबा! बाबा!
ये तीन-रंग का क्यों है?
बाबा! बाबा! बाबा!
ये चक्का नीला क्यों हैं?
ये डंडी इसमें जो हैं,
ट्वेंटी फोर ही क्यों हैं?
दिलवा दिया ना तुझको झंडा,
जा जाकर के खेल इससे,
बे-कार सवालों का वक़्त नहीं है,
काफ़ी बिज़ी हैं बाबा तेरे....
खूब खेला झंडे से,
फिर उठा कर फेंक दिया...
मिल जाएंगे और भी,
5 का एक तो मिलता है....
आजकल वो, उस जैसे कुछ,
बच्चे टीवी पर दिखते हैं...
बतलाते हैं आवाम को,
क्या है झंडा, क्या राष्ट्र है,
और क्या है राष्ट्र-प्रेम!
उपरोक्त कविता छब्बीस जनवरी 2018 को भोपाल से प्रकाशित होने वाले अखबार सुबह सवेरे में प्रकाशित हुई।
पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
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