निकल आया है शम्स,
और टँग गया है,
टँग गया है उफ़क़ पर,
रोज़ की तरह....
आज-कल करता है देर,
वक़्त लेता है बड़ा...
खैर जाड़ों में वैसे भी,
कौन जल्दी उठता है....
सर्द हवाओं में लहराती,
सब सब्ज़ा, घांस सब...और...
हाथ मलते, बुदबुदाते,
छोटे-छोटे से शजर....
जाग गए हैं सब के सब,
अंगड़ाइयाँ ले रहे हैं....
हर अंगड़ाई पर टूट जाती है,
सैकड़ों शबनम की नींदें मगर,
गिरकर ज़मीं पर, कुछ आंखें झपक कर,
सो जाती हैं सारी, राफ्ता फिरसे--
शम्स उफ़क़ से बांटता है,
किरणें अपनी, शबनमों को....
के सब ज़मीं पर गिरती हैं,
मुनीर कुंदन की तरह....
फ़लक के पीछे कहीं पर,
बाल बनवा कर सब पेड़,
नाहते हैं कोहरे में गोया,
फ़र्द नाहते हैं,
शैम्पू लगाकर रोज़-रोज़....
लगते हैं सारे ख़ूबसूरत,
विरले-विरले से...
मन करता है जाकर पूछूँ,
पता इनके हज्जाम का....
नाहकर और करके कंघी,
सबा की मदद से सब,
खड़े हो जाएंगे सूरज तले,
और काम करेंगे,
काम करेंगे अपना रोज़ की तरह....
निकल आया है शम्स,
और टँग गया है,
टँग गया है उफ़क़ पर,
रोज़ की तरह..
Keep Visiting!
No comments:
Post a Comment