Saturday, 23 December 2017

परिंदे नशेमन बनाते रहे।



नींद सर-ए-रात आती-जाती रही।

याद-ए-मुहीब दिलाती रही।।


परिंदे नशेमन बनाते रहे।

हवाएं मुसलसल सताती रही।।


हमे छोड़ा, तोड़ा, झंझोड़ा मगर।

भाती थी हमको सो भाती रही ।।


उससे ही मुझको है ख़लिश-ओ-सुकूँ।

वो जगाती थी, वो ही सुलाती रही।।


मैं मौज-ए-सबा उसे तकता रहा।

वो शम-ए-हया शर्माती रही।।


आवाम-ओ-सियासत का निस्बत है यूँ।

ये खाती रही, वो खिलाती रही।।


मुफ़लिस के घर में अँधेरा रहा।

दुनिया दिवाली मनाती रही।।


महताब पैराहन बदलता रहा।

रंगत चाँदनी की बदलाती रही।।


नूर आसमाँ से बरसता रहा।

शब रात भर जगमगाती रही।।


ये दिल मेरा सच्चाई चिल्लाता रहा।

कमबख्त ज़ुबाँ झूठी, झुठलाती रही।।

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