Thursday, 21 December 2017

पर्चा।



सहर भोजनालय में,
नाश्ता करते हुए,
एक घूँट चाय के बाद...

एक घूँट चाय के बाद जब,
अख़बार फड़फड़ाता हूँ,
तो अक्सर एक पर्चे सा कुछ,
गिर जाता है उससे...

गिरकर वो जाता है,
नीचे कहीं और नज़रें
उसकी जानिब नीचे की ही ओर...

चाय हटाकर, अख़बार पटककर,
मैं हड़बड़ी में उठाता हूँ,
वो पर्चा के देखें,
के देखें क्या नया है?
बाज़ार में , शहर में...

वही सब पुराना रहता है मगर अब,
आदत है गौर करने की,
सो गौर करते हैं....

मैं कोई पर्चा ही बनकर,
तुम्हारे अख़बार में आऊं,
और गिर जाऊं,
तुम्हारी पालकी में तो क्या तुम?

छोड़ोगी सभी काम और
गौर करोगी?
नज़र से तकोगी?

मैं वही रहूँगा पुराना हमेशा,
क्या नया समझकर,
तुम गौर करोगी?
नज़र से तकोगी?

हाँ अगर तो मैं पर्चा हूँ जानम!
तुम अख़बार उठाओ,
आज सुबह का.....

Keep Visiting!

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