Saturday, 9 December 2017

आईना।



अक्स मेरा शीशे में,
दिख रहा धुंधला मुझे..
ये भांप मेरी सांस की है,
जो जम गई है अक्स पर..


भांप की सिलेट पर,
उँगलियों के लम्स से...
एक मुख़्तसर सी नज़्म मैंने,
लिख दी और..
और फ़िर तुम्हारा दस्तख़त..


पल दो पल में,
भांप उड़ गई...
लफ्ज़ सारे मतरूक और..


बस तुम्हारा नाम है,
अभी भी लिखा हुआ,
मिटता नहीं, हैरान हूँ...


के आईना भी आशना है,
हाल-ए-दिल से यूँ मेरे..
कू-ए-दिल से यूँ मेरे..

Keep Visiting!

No comments:

Post a Comment

चार फूल हैं। और दुनिया है | Documentary Review

मैं एक कवि को सोचता हूँ और बूढ़ा हो जाता हूँ - कवि के जितना। फिर बूढ़ी सोच से सोचता हूँ कवि को नहीं। कविता को और हो जाता हूँ जवान - कविता जितन...