Wednesday, 29 November 2017

वक़्त।



दूर देखने में मसरूफ़ हम,
आस-पास नहीं देख रहे....
हम फूलों को, परिंदों को और,
और आकाश नहीं देख रहे।

बहुत कुछ करने में,
हम कुछ नहीं कर रहे...
और कुछ करते हुए,
छोड़ रहे हैं कितना कुछ पीछे....

हम व्यस्त कभी हैं ही नहीं,
अस्त-व्यस्त हैं,
हमेशा से...

हम जल्दी में,
जल्दबाज़ी करते हैं और
आराम में आलस...

किसी शाम को,
किसी सम्त से आता संगीत,
हम नहीं सुनते....

आँगन के फूलों को,
गुलाबों को, जासोन को,
हम नहीं देखते,

हम नहीं सहलाते उन्हें,
नहीं लगाते नाक से और..
नहीं देते पानी उन्हें...

हम नहीं ताकते बादल को,
और उसमें बनते,
शाहकारों को...

हम नहीं बैठते पेड़ तले,
हम नहीं तोड़ते,
फल कोई...

देखते नहीं ढलता सूरज,
चाँद उभरता या,
सय्यारा कोई...

हम नहीं गिनते तारे और,
ना ही जाते हैं,
चाँद तलक...

हम नहीं देखते,
क्षितिज के सपने..
ना करते हसरत उसे पाने की...

हम नहीं ताकते दरिया को,
और नहीं देखते,
अपना अक्स उसमे....

हम देखते हैं सपने,
खुदगर्ज़ी में तल्लीन सब,
बे-मतलब के ख़्वाब हम नहीं देखते...

हम नहीं करते के,
वक़्त नहीं है...
हमे करना चाहिए,
के सच! वक़्त नहीं है....

Keep Visiting!

No comments:

Post a Comment

चार फूल हैं। और दुनिया है | Documentary Review

मैं एक कवि को सोचता हूँ और बूढ़ा हो जाता हूँ - कवि के जितना। फिर बूढ़ी सोच से सोचता हूँ कवि को नहीं। कविता को और हो जाता हूँ जवान - कविता जितन...