नोट - प्रस्तुत ग़ज़ल में तीसरे शेर के दूसरे मिसरे में इस्तमाल किया शब्द "दवाद" असल में "दवात" होता है। काफ़िया मुकम्मल करने और ख़्याल को जस का तस पेश करने की खातिर लफ्ज़ का एक हर्फ़ मैंने अपनी जानिब से बदला है जिसके लिए मैं तमाम उर्दू शायरी के मैकशों से मुआफ़ी मांगता हूँ।
अदालतों में थोड़ी सही, दाद है क्या?
दुनिया तेरे फसानों में कोई स्वाद है क्या?
तस्वीर जिसके साथ तुमने बे-पनाह खिंचवाई हैं।
उस शायर का कोई शेर तुमको याद है क्या?
किसी ने सोना माँगा, किसी ने चांदी चाही।
शायर ने फ़रोश से पूछा, दवाद है क्या?
वो तो छोड़ गए हैं हमको, रोज़-ए-महशर तक।
फिर ये दिल पर कौन है?, याद है क्या?
अब तो तन्हाई से हम ये पूछा करते हैं।
तुझसे बद्तर मंज़र तेरे बाद है क्या?
क्या कहा के दोस्त तुम्हारा शेर कहता है।
पागल है, आवारा है, बर्बाद है क्या?
लोग हैं सारे यहाँ, मुख़्तलिफ़ असीरी में।
आज़ाद मुल्क़ से कोई पूछे, आज़ाद है क्या?
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