Sunday, 26 November 2017

कड़वी हवा।



बंजारे लगते हैं मौसम, मौसम बे-घर होने लगे हैं.

-गुलज़ार 


संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित भव्य फिल्म पद्मावती और किसी अजीब से नाम वाली एक सेना के बीच फिल्म के प्रदर्शन को लेकर चल रही जंग के हो-हल्ले के बीच सिनेमाई परदे पर दस्तक दी है बांसुरी की मधुर ध्वनि समान फिल्म "कड़वी हवा" ने। सालों से बेहतरीन सिनेमा को लोगों तक लाने का काम करने वाले निर्माता मनीष मुंदरा द्वारा निर्मित यह फिल्म जहाँ एक ओर सिनमाई मैकशों के लिए एक सौगात है वहीँ दूसरी ओर यह इस मुल्क ही नहीं वरन तमाम दुनिया के लिए खतरे का संकेत भी है। 


जलवायु परिवर्तन पर बनी भारत की सर्वप्रथम फिल्म घूंसखोरी, प्रशासनिक भ्रष्टाचार और किसान आत्महत्या जैसी संगीन परेशानियों को भी रेंखाखित करती नज़र आती है। कहानी का नायक(संजय मिश्रा) अपने गाँव की बदलती हवा को लेकर बेहद परेशान है। वह जानता है की उसकी ज़मीन बंजर पड़ चुकी है और उसके बेटे के सर पर बैंक का बहुत बड़ा कर्ज़ा भी है। वह चिंतित है की दूसरों की तरह क़र्ज़ के बोझ में आकर उसका बेटा भी कहीं आत्महत्या ना करले इसलिए वह बैंक के एक अफसर(रनवीर शोरी) के साथ मिलकर एक घिनौने चक्रव्यूह की रचना करता है। नायक अपने सूत्रों से यह पता करता है की किस कर्ज़दार के पास कब, कितने पैसे आने वाले हैं और फिर सबकुछ जाकर अफसर को बता देता है। जानकारी हासिल कर अफसर उस शख्स से पैसे वसूलता है और उसके बदले कुछ पैसों के साथ-साथ उसके बेटे को क़र्ज़ लौटाने के लिए वक़्त भी मयस्सर करवाता है। हालांकि कहानी के अंत में नायक अपनी इस गलती पर पछताता भी नज़र आता है। 


गौरतलब है की फिल्म का नायक अंधा है और इसके बावज़ूद वह साहस से काम लेते हुए अपने बेटे की मदद करने की कोशिश कर रहा है। फिल्म में नायक का नाम "सूरदास" रखा जा सकता था मगर फिर सूरदास के वंशज इस फिल्म को प्रतिबंधित करने की मांग कर सकते थे इसलिए संभवतः निर्देशक ने ऐसा नहीं किया। फिल्म का दूसरा मुख्य पात्र यानी बैंक-अफसर भी मजबूरियों से घिरा हुआ है। ओड़िसा से ताल्लुकात रखने वाला यह शख्स अपने परिवार को अपने पास बुलाना चाहता है क्योंकि समंदर ने उसका सब कुछ नष्ट कर दिया है। दोनों ही किरदारों के माध्यम से जलवायु परिवर्तन जैसी खतरनाक परेशानी को दर्शकों के सामने पेश किया गया है। एक दृश्य में मास्टर अपनी कक्षा में बच्चों से सवाल करता है की बताओ हमारे देश में कितने मौसम होते हैं तो एक मासूम बच्चा जवाब में "दो" कहता है। इस जवाब के लिए उसे डांट खानी पड़ती है मगर दर्शक इस व्यंग्य को समझ जाते हैं। चार मौसम अब बस किताबों में ही रह गए हैं और इसलिए शायद अब स्कूली-पाठ्यक्रम बदला जाना चाहिए।


संजय मिश्रा से लेकर तिलोतमा शोम तक सभी का अभिनय बेजोड़ है। निर्देशक नीला माधब पांडा विगत नौ वर्षों से इस फिल्म की पटकथा पर काम कर रहे थे। पांडा स्वयं एक ग्रामीण इलाके से आते हैं और इसलिए उनके सम्पूर्ण सिनेमा में आंचलिक खुशबू मिलती है। 2010 में आई फिल्म "आई एम कलाम" बाल-मजदूरी और जातिवाद जैसे अज़ाबों को फ़िरोशां करने के इरादे से बनाई गई थी वहीँ 2012 में आई जलपरी महिला भ्रूण हत्या जैसी समस्या पर आधारित थी। निर्देशक की पूर्व फिल्मों की कहानियां भी ग्रामीण इलाकों से थीं और सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित थीं। कड़वी हवा भी निर्देशक की अनमोल रचनाओं में से एक है। 


फिल्म का आखिरी दृश्य रोन्टे खड़े कर देने वाला है जिसमे दोनों मुख्य किरदार प्रकृति से माफ़ी मांगते नज़र आते हैं। डिस्कवरी चैनल के काफी चर्चित शो "मैन वर्सेज वाइल्ड" का नायक बियर ग्रिल्स दुनिया के अलग-अलग बीहड़ों में जाता है और वहां कुछ दिन रहकर बीहड़ों में ज़िंदा बचे रहने के तरीके बतलाता है। हर एपिसोड के अंत में जब वह अपने घर लौट रहा होता है तो एक वाक्य दोहराता है की "मानव कितनी ही प्रगति करले मगर प्रकृति समय-समय पर उसे अपनी औकात याद दिलाती रहती है।" हमे भी अब सतर्क होना होगा, आँखें खोलनी होंगी, अपने आसपास हो रहे बदलावों को समझना होगा ताकि वक़्त रहते हम संभल सकें वरना हवाओं का कहर हमे सँभलने का मौका भी नहीं देगा। इस फिल्म को भारत के जलवायु परिवर्तन विभाग को हुक्मरान के साथ बैठकर देखना चाहिए और इस मामले का निवारण तलाशना चाहिए। देश के समस्त "दिलवालों" और "बादशाहों" से मेरी दिली दरख्वास्त है की अगर उन्हें हर दिन "हैप्पी न्यू ईयर" मनाने से ज़रा सी भी फुर्सत मिले तो वे प्रकृति में हो रहे इस "गोलमाल" की ओर एक नज़र डालते हुए इस फिल्म को अवश्य देखें क्योंकि वाक़ई "मौसम बे-घर होने लगे हैं।"

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