Wednesday, 25 October 2017

नींद।




रात बिछौने पर,
जब मैं लेट जाता हूँ,
शमा बुझाकर...
एक सुबह होती है भीतर मेरे...

ख़्याल सब जो सोए पड़े थे,
जागते हैं हौले-हौले...और
उड़ते फ़िरते हैं ज़हन में,
बेदार परिंदों की तरह...

वक़्त से काटकर कुछ लम्हे,
जो मैंने समेट लिए थे, दिन-भर में...
उनकी शिनाख्त करता हूँ,
के कहीँ किसी में पल में,
कोई नज़्म मिल जाए शायद!

जागती आँखों से कुछ सपने,
देख लिया करता हूँ मैं,
के बंद आँख के सपनो पर,
ऐतबार नहीं मुझको...ज़्यादा!

दो-चार करवट में जब,
ख़याल सभी उड़ जाते हैं,
एक चादर डाल लेता हूँ ख़ुद पर,
नींद ओढ़ लेता हूँ...

बंद कर आँखें अपनी,
मैं उतरा चला जाता हूँ,
भीतर की सीढ़ियों पर,
नींद की ओर...

हर सीढ़ी पर कोई याद मुझे,
रोक कर पूछ लेती है,
हम याद आते हैं क्या?,
या भूल गए हो तुम हमको?

सबसे बचता-छुपता में,
झट-पट सीढ़ी उतरता हूँ...
सोना है ना मुझको,
नींद से मुलाक़ात करनी है...

आख़िर वाली सीढ़ी पर,
बाद जिसके नींद है...
तुम पुकार लेती हो मुझको..
और मैं थम जाता हूँ...

बस! तुमसे बचना मुश्क़िल है,
नींद को पाना मुश्क़िल है....

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