एक रोज़ मेरी डायरी उठाकर,
वो बैठ गई..मेरे सामने..
और तह-ब-तह पढ़ने लगी,
मुझको... मेरी नज़्मों को...
वो पढ़ती जाती, मुस्कुराती...
मैं उसको देखा करता था,
उसकी मुस्कानों से ही,
शामें फ़िरोशां करता था....
पन्ने-पन्ने खुलते थे,
नज़्में खिलती जाती थीं...
उस रोज़ मेरे फ़ूलों पर,
एक तितली आकर बैठी थी...
किसी नज़्म पर,
उसकी आँखें बड़ी-बड़ी सी हो गई,
रुख्सारों पर, लबों पर उसके,
एक हँसी सी ठहर गई..
डायरी को बंद करके,
नज़रें मुझपर कर बोली-
"इस नज़्म से तो मुझको,
याद मेरी आती है"
"याद तुम्हीं को करते वक़्त,
ये नज़्म मुझको आई थी",
मन ही मन मैं भी बोल पड़ा..
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