ओढ़कर सन्नाटा गहरा,
आज गंगा सो रही है...
सिरहाने अपने तट लगाकर।
आज गंगा सो रही है.....
कोई सफ़ीना उठता नहीं है,
मछलियां सब नींद में हैं,
कुछ लोग हैं साहिल पर, चुप हैं..
मल्लाह चुप हैं, सब वाइज़ चुप हैं..
सब फिजाएँ थम चुकी हैं,
सरगोशियों का अक्स नहीं है..
घाटों पर जो शम्मा जलीं थीं,
राफ्ता सब बुझ रही हैं...
सियाह क्षितिज पर गौर करूँ तो,
एक टिमटिमाती रौशनी है...
उस रौशनी के नीचे लहरें,
उठ रही हैं, गिर रही हैं....
वो नदी की नाभि है शायद,
जो सांस मुसलसल ले रही है...
हौले-हौले इस तरह से,
गंगा मैया बह रही हैं...
किसी रोज़ जो थम गई सांसे?
होगा क्या?, क्या हो जाएगा?
किसी रोज़ जो सोती रह गई गंगा,
कोई बेदार है, जो जगाएगा?
ओढ़कर सन्नाटा गहरा,
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