नूर बरसता है जिससे, वो महताब ले आया।
गया मैं जब भी सर-ए-शहर किताब ले आया।।
तमाम घर में थे सुबू, सब के सब खाली।
मैं मयखाने में जाकर शराब ले आया।।
शक़्ल से सब आम थे, सुनहरे बाज़ार में।
काट के देखा तो जाना, खराब ले आया।।
लेकर गया मैं दुश्मनों को सैर पर इक दिन।
लौट कर आया तो संग अहबाब ले आया।।
यार मेरे सारे खोजते रहे हीरा।
मैं गया और एक पत्थर नायाब ले आया।।
थी तमन्ना उसकी के उस जैसा कुछ लाऊँ।
गुल-फरोश के पास से गुलाब ले आया।।
जाननी थी उनको मेरी आशिक़ी की हद।
कब-कब, कितना याद किया है, हिसाब ले आया।।
वो पागल थी नज़राने में रौशनी मांगी।
दीवाना तो मैं भी था, आफ़ताब ले आया।।
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