एक शज़र लगा है, छोटा सा...
तीन दफ़ा वो कट चुका है,
बार-बार कुचला जाता है,
हर दम उसको दर्द मिला है,
फ़िर भी उग-उग आता है...
के जिस शज़र से मैंने ज़िद करना सीखा,
उसको टीचर्स डे मुबारक़ हो....
कोहसार जो है, कितना ऊँचा है,
बादलों को छूता है...
मैं नीचे बैठा तकता हूँ उसको,
तो मुझे हिदायत देता है,
बात जिसकी सुनकर के मैं,
अपना कद तराशा करता हूँ...
उस मुस्तक़िल कोहसार को भी,
टीचर्स डे मुबारक़ हो...
आसमान के पीछे कहीं पर,
एक क्षितिज नाम का बंदा है...
इस साहिल से देखो उसको तो,
उस साहिल पर दिखता है...
बेहद जिगरी दोस्त है मेरा,
अपनी ओर बुलाता है,
जिस क्षितिज ने मुझको चलते रहना सिखाया,
उसको टीचर्स डे मुबारक़ हो...
आसमान को, समंदर को देखो,
बे-महदूद दोनों फैले हैं,
इनके साथ परिंदे, फ़िज़ा-फ़ज़ा हैं
इंद्रधनुष भी इनका है..
इतना सबकुछ होकर भी,
मुतमईन ये रहते हैं...
मुझको मगरूरियत से जिन्होंने बचाया
उनको भी, टीचर्स डे मुबारक़ हो...
गुदगुदी करके जिस माँ ने,
हँसना मुझे सिखाया था,
डांट-डपटकर जिस पिता ने,
कुछ काबिल मुझे बनाया था,
जिनसे खाना सीखा, चलना सीखा,
सोचना और समझना भी,
मुझे जन्म दिया जिन वालिदान ने,
उनको टीचर्स डे मुबारक़ हो...
घर छोड़ा तो मकताब में आए,
वहाँ हमको उस्ताद मिले,
लिखना सीखा, बोलना सीखा,
सीखी कुछ एक ज़बानें...
हिस्ट्री जानी, जियोग्राफी जानी...
फिजिक्स, मैथ्स और केमिस्ट्री...
जिन्होंने हमको इंसान बनाया
उनको भी, टीचर्स डे मुबारक़ हो...
नज़्मकार, कहानीकार सारे,
जिनसे तआरुफ़ कभी हुआ नहीं,
उनको पढ़कर में शायर हुआ हूँ,
ये बात उन्ही को पता नहीं...
सारी नज़्मों-ग़ज़लों की
इब्तिदा जिनसे हुई,
मुझे इल्म अदब का देने वालों को,
टीचर्स डे मुबारक़ हो.....
बार-बार ये गिरा-गिराकर,
मुझसे उठने को कहती है,
मुख़्तसर सी ज़िन्दगी है,
इम्तिहान लेती रहती है..
परवाज़ कभी, ज़वाल कभी,
उसूल है यही हयात है...
कोई किस्सा दिन का है,
तो कोई है रात का...
तंग, पेचीदा गलियों में जिसकी,
मैं किसी शाग़िर्द सा फिरता हूँ,
उस उस्ताद ज़िन्दगी को भी,
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