किसी गाँव में एक नदी थी,
हौले-हौले बहती थी,
हौले-हौले बहती थी,
एक पेड़ और कुछ परिंदे,
दोस्त थे उसके, उसे चाहते थे..
हवा नदी में दौड़ा करती,
परिंदे डुबकी लगाते थे,
परिंदे डुबकी लगाते थे,
जानवर सब पानी पीते थे,
और फ़ूल मुस्कुराते थे..
नदी जब भी दुःख से गुज़रती,
पेड़ उसे हंसाता था,
जिस बारिश से इश्क़ था नदी को,
उसे धरती पर लाता था..
एक रोज़ चुपके-चुपके से,
गाँव में एक बस्ती आई
टैंट लगाया नदी किनारे
और चैन से सो गई..
नदी समझी दोस्त हैं ये भी
बस्ती को पास रहने दिया
पेड़, हवा सबने समझाया
मगर नदी नहीं मानी..
एक रात जब सन्नाटा था बिखरा,
नदी नींद में लेटी थी,
बस्ती आई दबे पाँव और,
गला पेड़ का काट दिया..
सुबह हुई जब नदी जागी,
पेड़ नज़र में नहीं आया,
हवा, परिंदे, जानवरों की
तबियत भी नासाज़ दिखी,,
नदी को जब पता लगा की,
कातिल वही बस्ती थी,
निराश हुई वो बेहद ज़्यादा,
सुर्ख आंसूं रोने लगी..
धीरे-धिरे हालत दरिया की,
बद से बदतर होने लगी
बद से बदतर होने लगी
चारों ओर अँधेरा छाया
और बस्ती की हस्ती खोने लगी..
पछतावे में बस्ती आई,
भूल अपनी मान ली
भूल अपनी मान ली
नदी को फिरसे शादाब करेंगे,
आखिर उसने ठान ली..
बस्ती-बस्ती, बस्ती घूमी,
लोगों से दरख्वास्त की
नदियों की खातिर साथ आओ,
यही सभी से आस की..
लोग जुड़े और शहर जुड़े फिर,
एक अभियान शुरू हुआ
पेड़ लगाए ढेरों लोगों ने,
और बारिश का इस्तक़बाल किया..
जैसे ही फिर नदी लौटी,
लौट आई सब मुस्काने,
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