Monday, 18 September 2017

नज़्म-ए-बारिश।




एक रोज़ किसी नज़्म में,
मैंने तुम्हे बारिश कहा था...याद है!

बारिश जिसके लम्स से,
मैं शादाब हो जाता हूँ...
और जिसकी बूंदों से,
गुल-ए-गुलज़ार हो जाता हूँ...

बारिश जो सीधा चेहरे से,
दिल में उतरती है,
वो बारिश जो थमती नहीं,
मुस्तकिल बरसती है..

आती है वो अर्श से,
मेरी खातिर बस..
ये दिल शगुफ्ता हो उठता है,
और महकती है नफ़स.. 

बारिश जिसके आते ही,
आँखें बंद हो जाती हैं..
बारिश जो अपनी मौजूदगी,
महसूस कराती है..

बारिश जिसकी हरकतें,
बच्चों जैसी हैं,
मासूम कभी धीरे बरसे,
तो कभी गुस्सा हो जाती है.. 

आज मैं बैठा हूँ क्षितिज किनारे,
आफ़ताब ताकते हुए,
और पानी बरस रहा है थोड़ा,
राफ्ता-राफ्ता से.. 

भीग चुका हूँ पूरा का पूरा,
मगर वो एहसास नहीं होता,
शायद! अभी बारिश का आना बाकी है.
शायद! अभी तुम्हारा आना बाकी है...

एक रोज़ किसी नज़्म में,
मैंने तुम्हे बारिश कहा था...याद है! 

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