मैं प्रद्युम्न, शायर हूँ...
कई रोज़ से, रोज़ तुम्हे मैं,
ताका करता हूँ, छिप-छिप कर..
मैं हूँ मुसाफिर उस सफ़र का,
तुम हो जिसकी मंजिल पर..
कई दफ़ा आती-जाती हो,
सामने इन आँखों के..
मैं कभी रोकता नहीं हूँ और,
तुम कभी रुकती नहीं..
जब-जब अकेली बैठी हो तुम,
सर टिकाकर दिवार से..
मैं भी तन्हा बैठा हूँ,
ठीक उस तरफ दीवार के..
फिरदौस में किसी शजर के नीचे,
तुम जब-जब जाकर टहलि हो,
तब-तब मैं भी पेड़ों को,
पानी देने आया हूँ...
जब कभी भी बारिश में,
तुम अर्श से फर्श तक भीगी हो..
रुमाल नाक पर रख-रख कर,
हमने भी छीकें लगाई हैं...
गुफ्तगू तुमसे सारी,
ख्वाबों में ही हो जाती हैं....
कुछ एक अदा यहाँ दिल में कैद है,
कुछ तसव्वुर में रह जाती हैं..
दर्जन भर मेरी ग़ज़लें हैं,
जो नज़र तुम्हे हैं हो चुकी..
कुछ आधा दर्जन नज्में हैं,
जिनकी तफ़्सील में बस तुम हो.."
शब्-ओ-रोज़ ये बातें सारी,
मुक़ाबिल आईने के करता हूँ....
नज़रों पर उसकी कह सकूँ, ऐ! मौला,
इन लबों को इतनी हिम्मत दे....
No comments:
Post a Comment