I don't like to play matches, Vishal sahab. I enjoy just practicing.
-Sahabzaade Irffan to Director Vishal Bharadwaj
"सब" बन रहा है
अदाकार कहलाता है।
किरदार बदल लेता है ऐसे,
जैसे पैराहन कोई।
ज़ुबान बदल लेता है जैसे,
कोई ख़्याल बदला हो।
एक अदाकार की आँखों में
उसके समय की,
कई आँखें रहती हैं।
उसके अंदाज़ में शामिल रहता है,
उसके अहद का सच।
जो कि उसके बाद भी उसके,
अमल में ज़िंदा रहता है।
अदाकार गुज़र जाते हैं,
अदाकारी दाएम रहती है।
एक साँचे में पूरा "ख़ुद",
गिराना, उसमें ढ़लना भी
उस साँचे में दिन कुछ रहना,
रहना और निखरना भी।
और फिर ढ़लना दूसरे में,
साँचे के बदलते ही।
हँसना भी, हँसाना भी
रोना और रुलाना भी।
नादान तिफ़ल बन जाना कभी
सौदाई बन चिल्लाना भी।
सब करता है अदाकर एक,
"सब करना।" उसका कर्म है।
सब करता है स्क्रिप्ट के लिए वह
स्क्रिप्ट उसका धर्म है।
कितने ही फ़सानों को,
किया मुक़म्मल इन्होंने
और किया कितने शब्दों को
सेट पर जीवंत।
सब किया है अदाकार ने
अपने किरदारों के लिए।
वह सबसे बड़ा स्वार्थी है,
है सबसे बड़ा वह दानी भी।
राफ्ता ख़ुद को भूलता होगा,
जाते हुए किरदार की ओर
"ख़ुद" क्या उसको याद भी होगा?
क्या पता, शायद! हाँ।
"ख़ुद" ना रहना बुरा हो शायद!
मगर बड़ा कमाल है
फन है एक ग़ज़ब का यह,
सुंदर एक एहसास है।
"सब" बनना ही अदाकर को,
उसके "ख़ुद" से मिलवाता है -
क्योंकि अदाकार किरदारों से है
और किरदार अदाकर से।
सारा "दिनभर" टहल-टहल कर,
जब सूरज डूबने आता है।
तब आसमान की ख़ूबसूरती
का चरम नज़र में आता है।
ढ़लती उम्र के साथ अदाकार
भी पुराना नहीं होता।
वह होता जाता है ख़ूबसूरत
ठीक सूरज की तरह।
लेकिन! इस चर्मोत्कर्ष के
बाद अदाकार भी
डूब जाता है, कभी ना कभी।
डूब जाता है
ठीक सूरज की तरह
और पीछे छोड़ जाता है -
एक प्रकाश-रहित शून्य।
Keep Visiting!
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