किसी दरीचे से,
क्षितिज को ताकना,
मुझे बेहद ख़ुशी देता है....
सोचता हूँ के कितना कुछ है,
पास क्षितिज के,
मेरे कुछ कितना ज़्यादा....
कई कोहसार हैं उसके आगे, और
और एक दरिया,
उससे निकलती है.....
तले उसके ज़मीं है पूरी,
और ऊपर,
नीला अम्बर सारा....
उसके पीछे कोई नहीं है,
बस वो है,
पूरा का पूरा....
तकते हुए उसको,
जब मैं पीछे मुड़ता हूँ...
तो उसे ही देखता हूँ...
वो दाएं भी है, बाएं भी,
आगे भी है,और पीछे भी।
चारों ओर, हर तरफ, बस वो.....
वो हर जगह है,और एक जैसा
जैसा आगे, वैसा पीछे,
जैसा बाहर, वैसा भीतर....
ज़द में नहीं है,
मगर पास में है.
सबसे दूर और सबसे पास, शायद!
परिंदों की, फ़िज़ाओं की,
दरख्तों की दरियाओं की,
सबकी आवाज़ संभालता है,
क्षितिज की अपनी कोई,
ज़बान नहीं होती,,,,
उसकी चुप्पी ही,
उसकी आवाज़ है शायद!
बहुत कुछ है,
जो सीखने जैसा है,
क्षितिज से...
Keep Visiting!
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