हर सियाह अंधेरी रात को,
एक ख़्याल आता है पेचीदा सा...
के आज जो है, सहल है वो तो,
मगर कल जो होगा, कैसा होगा?
मैं आज जो हूँ, वही कल रहूंगा?
या तब्दीली आएंगी....
दौलत, शौहरत साथ रहेगी,
या मुफ़्लिसी छा जाएगी...
कल की सूरत किसी होगी..
किसको ख़बर, किसको पता....
अमल आज का,
सही रहेगा, या बन जाएगा कोई ख़ता...
कल बड़ा विशाल है, शायद
और उसकी एक परछाई है,
परछाई में मेरा आज कैद है,
सब राहों पर रातें छाई हैं....
काश! के मैं चित्रकार होता,
और शक़्ल कल की जानता...
तो उसकी एक तस्वीर बनाकर,
टांग देता घर की दीवार पर...
हर आते-जाते से ना घबराता,
सबके मुक़ाबिल जाता मैं,
सबको बस तस्वीर दिखाता,और कहता
वो देखो कल मेरा....
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