Wednesday, 7 June 2017

मुख़ालिफत न कर।




दोस्ती में यार मेरे मुवाफ़क़त न कर। 

जो करे तो याद रख, रफ़ाक़त न कर।।


इक मुलाज़िम ही चाहता है घर मे अगर,

जा निकाह कर ले, मुहब्बत न कर।।


वल्लाह! गज़ब हैं ये ठेकेदार मज़हब के,

मुझसे कहते हैं कर प्रार्थना , इबादत न कर।।


ज़र्रे-ज़र्रे में उसका अक्स है ऐ! बन्दे।

उसे भीतर ही ढूँढ़, ज़ियारत न कर।।


ख़त्म करदे रक़ीब को, तरीका यह रख।

उससे करले रफ़ाक़त, अदावत न कर।।


शर भी है इसमे और आफ़त भी "दोस्त"।

बन जाए अज़ाब वो शराफ़त न कर।।


है बग़ावत ज़रूरी, मगर इतनी भी नहीं,

कोई साथ ही ना रहे, वो मुख़ालिफ़त न कर।।

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