जो करे तो याद रख, रफ़ाक़त न कर।।
इक मुलाज़िम ही चाहता है घर मे अगर,
जा निकाह कर ले, मुहब्बत न कर।।
वल्लाह! गज़ब हैं ये ठेकेदार मज़हब के,
मुझसे कहते हैं कर प्रार्थना , इबादत न कर।।
ज़र्रे-ज़र्रे में उसका अक्स है ऐ! बन्दे।
उसे भीतर ही ढूँढ़, ज़ियारत न कर।।
ख़त्म करदे रक़ीब को, तरीका यह रख।
उससे करले रफ़ाक़त, अदावत न कर।।
शर भी है इसमे और आफ़त भी "दोस्त"।
बन जाए अज़ाब वो शराफ़त न कर।।
है बग़ावत ज़रूरी, मगर इतनी भी नहीं,
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