किसी नदी किनारे बैठ कर,
उस पार का साहिल ताकूँ तो,
एक सफ़र इब्तिदा होता है..
एक सफ़र रोमांच का,
एक सफ़र एहसास का...
सफ़र, जिसमे मुस्तक़िल मैं हूँ...और
सफ़र, जिसमें मन चलता है...
निगाहों से छलांग लगाकर,
ज़र्फ़ में उतरता हूं,
और फिर निकलता हूँ बाहर,
उस ओर के साहिल पर...
वो किनारा मंज़िल नहीं है...
केवल एक पड़ाव है..
बाद उसके कोहसार कई हैं,
फिर दश्त है एक और हवाएँ फिर...
मैं हवाओं से आगे नहीं जाता,
उड़ जाता हूँ उनके संग आसमान में...
जहाँ कुछ एक परिंदे हैं,
आफ़ताब है और कई अब्र भी...
थोड़ा टहल आसमान में,
मैं उस अब्र में चला जाता हूँ,
जो सियाह पड़ चुका है...
किसी रोज़ वो बरसेगा,
बनकर पानी ज़मीन पर..और
लेकर सहारा बूंदों का,
मैं लौट आऊंगा धरती पर...
के आसमान में उत्साह है,
उमंग है और मज़ा भी है...मगर
वहाँ अपने नहीं हैं,
और ना ही है सुकूँ-ए-दिल..
वहाँ सफ़र है इंद्रधनुष का,
सतरंगी ख़ुशियों वाला...मगर
यह सफ़र मेरा नहीं है,
कतई नहीं..!
मैं तो किसी नदी किनारे बैठ कर,
उस पार का साहिल ताकूँ तो,
एक सफ़र इब्तिदा होता है..,
एक सफ़र मेरा वाला..
Keep Visiting!
No comments:
Post a Comment