Tuesday, 9 May 2017

शजर।


खोलता हूँ जब भी,
घर के किवाड़ अपने...
एक नन्हा शज़र झाँकता है भीतर,
अपनी टेढ़ी गर्दन से.....


बड़ी हसरत से तकता है,
कुछ चाहिए उसको....
मगर क्या?


पानी?, खाद? या कुछ और...शायद!

रोज़ सुबह खिलखिलाकर,अलविदा कहता था...
वो सब फूल गुलाबी उसके,
मुझको रोका करते थे....

मेरे लौटते ही शाम को, इस्तक़बाल करता था...
और ज़िद करता था, मेरे पीछे,
भीतर आने की.....

आजकल मायूस है, मुरझा रहा है...

कुछ चाहिए उसको....
मगर क्या?


पानी?, खाद?, या कुछ और....शायद!


एक रोज़ मैं साथ रहा उसके,
पानी दिया, थोड़ा ज़्यादा, खाद, थोड़ी अधिक 
और बैठकर डैल पर,
तकता रहा उसे...


आफ़ताब ढला जब शाम को,
और उफ़क़ नारंगी हुआ....


ख़्याल आया के,
वो जो एक नारंगी तितली,
हर रोज़ आया करती थी, मेरे जाने के बाद..
आज वो आई ही नहीं, वो आई थी क्या?

Keep Visiting!

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